Saturday, November 6, 2010

कुछ बातें / सांस्कृतिक बाज़ारवाद

कविता के लिए यह वाकई कठिन दौर है क्योंकि अस्वीकार, विरोध और प्रतिरोध के मोर्चे पर वह लगभग अकेली है। कोई पैंतीस साल पहले रघुवीर सहाय ने एक कविता में कहा था ‘एक और ही युग होगा जिसमें ताकत ही ताकत होगी और चीख न होगी।’ यह एक तरह से भविष्य-कथन था जिसका सच आज बहुत अधिक महसूस होता है जब हम खुद को ताकत के वििभन्न और भयावह तंत्रों के घिराव में पाते हैं। अमेरिका, बहुराष्ट्रीय निगम, उपभोक्ता बाजार, गैर-उत्पादक क्रय-विक्रय तंत्र और मीडिया इस शक्ति सरंचना के प्रमुख घटक हैं जिन्होंने मनुष्य को नये सिरे से इतना पराधीन बना दिया है कि वह चीखने में असमर्थ है, कोई शिकायत नहीं करता और यह भी जान गया है कि गुलामी के अपने मजे हैं। इसके साथ यह दुर्घटना भी हुई है कि भारतीय अंग्रेज़ी उपन्यास की तरह हिंदी साहित्य मीडिया के बहुत पास आ गया है, लगभग उसका हिस्सा बन रहा है और उसमें अस्वीकार करने, प्रतिपक्ष की भूमिका निभाने की नैतिक चेतना काफी कम हो चली है। जाने-अनजाने वह मीडिया की दो प्रमुख विशेषताओं - यथास्थिति और मनोरंजन-धर्मिता - को अपना रहा है, यथार्थ के अनुभवों को तटस्थ और निस्संग तरीके से दर्ज कर रहा है लेकिन उसमें ‘नैतिक अस्वीकार’ की प्रवृत्ति तेजी से कम हो रही है। रघुवीर सहाय की कविता में व्यक्त ‘ताकत ही ताकत’ पिछले डेढ़ दशक में कहीं अधिक व्यापक रूप ले चुकी है और हम उसके खिलाफ चीखना भूल रहे हैं। आधुनिक मीडिया राजनैतिक घटनाओं के विवरण भी गैर-राजनीतिक और सनसनीखेज स्तर पर पेश करता है और चीखने या प्रतिरोध करने की प्रेरणा नहीं देता। आज का अधिकतर गद्य साहित्य इसी राह पर चलता दिखाई देता है और कविता भी उससे अछूती नहीं रह पायी है। पिछले दिनों एक युवा कवि की एक कविता की काफी चर्चा हुई जिसमेें इस आशय की पंक्तियां थीं कि कार्ल मार्क्स एक बंद कारखाने के अहाते में उगे हुए पीपल के पेड़ की तरह हैं जहां हम कभी कभी चले जाते हैं और अनुष्ठान की तरह पानी चढ़ा आते हैैं। इस कविता में व्यक्त अनुभव की सच्चाई और यथास्थिति की ईमानदारी पर संदेह भले न किया जाये लेकिन उसमें कोई नैतिक अस्वीकार नहीं दिखता। शायद हमारी या हमसे पहले की, प्रगतिशील विचारों से संचालित पीढ़ियां यह नहीं लिख सकती थीं। जाहिर है, ऐसी पंक्तियां सांस्कृतिक बाजारवाद और मीडिया के समय में ही संभव थीं।

इस सांस्कृतिक बाजारवाद का एक रूप कविता से लोकप्रियतावादी मांगों की शक्ल में प्रकट हो रहा है। कुछ आलोचकों और कवियों ने यह कहना शुरू कर दिया है कि हमारी कविता जटिल दुर्बोध है और उसमें सरलता उपलब्ध करने के लिए छंद की वापसी होनी चाहिए। ऐसी लोकप्रियतावादी अपेक्षाएं युवा कविता के लिए भ्रामक और खतरनाक ही साबित होंगी क्योंकि छंद की वापसी का आग्रह दरअसल निहायत रूपवादी है जो हमें फिर से लोकजीवन के घिसे-पीटे-पिलपिले बिंबों, गीत गजल (वह भी हिंदी), गेयता, मुक्तक और फिल्मी गानों की तरफ और इस तरह कविता के तरलीकरण - डायल्यूशन - की और ले जायेगा और इसमें कोई नयी बात कतई नहीं होगी क्योंकि हिंदी काव्य पहले से ही गीत-नवगीत आदि के दुष्परिणामों के इतिहास से भरा हुआ है। छंद के नये प्रयोग अगर नागार्जुन और त्रिलोचन की बहुत सारी कविताओं, रघुवीर सहाय की ‘रामदास’ और कुंवर नारायण ‘कांधे धरी यह पालकी’ से आगे नहीं जाते हैं तो वे कविता के काम के नहीं हो सकते। अच्छी छंदहीनता खराब छांदिकता से कहीं बेहतर है और लोकप्रिय कवि लोकप्रिय कविता से कहीं अधिक जरूरी हैं। कविता की तुरंत समझ आ जाने वाली लोकप्रियता की मांगें बाजार के विस्तार के साथ बढ़ने लगी हैं, लेकिन कवि की लोकप्रियता से किसी को सरोकार नहीं है। यहां हम शमशेर बहादुर सिंह को याद कर सकते हैं। उनकी कविता दुरूह है इसलिए अलोकप्रिय मानी जाती है और इस मान्यता के प्रचार में आलोचकों का भी हाथ है। लेकिन शमशेर मनुष्य के रूप में लोकप्रियतावादी कविता या गीत लिखने वाले कवियों से कहीं अधिक लोकप्रिय थे - हालांकि कविता की कठिन शर्तों से डिगने को तैयार नहीं थे।

मंगलेश डबराल सितम्बर 2010
कथादेश से साभार

2 comments:

  1. First of all, I must congratulate you on raising serious literary and social issues through your blog. During the 70's, when I was a university student, protest was fashionable. Having discussions on varied issues over endless cups of coffee used to be the 'in thing'. Although this gave birth to quite a few pseudo-intellectuals, such an atmosphere encouraged the young people to be socially aware and outspoken. But this is the era of conformity where the only aim is individual material progress. Let's hope, Asad Saheb, that your effort may rekindle old fires.

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  2. "इस कविता में व्यक्त अनुभव की सच्चाई और यथास्थिति की ईमानदारी पर संदेह भले न किया जाये लेकिन उसमें कोई नैतिक अस्वीकार नहीं दिखता।"

    "If any man wish to write in a clear style, let him be first clear in his thoughts; and if any would write in a noble style, let him first possess a noble soul."-- Goethe

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