अब मैं कुछ और अलग चीजों की तरफ़ ध्यान खींचना चाहता हूं. मेरे ज़ेहन में शकीरा का नाम आता है. यूं तो उनका एक ताज़ा एल्बम आ गया है लेकिन मेरा ध्यान इस समय उनके विश्व कप फ़ुटबॉल 2010 के वाका वाका नृत्य पर है.
शकीरा ने रोमान, संस्कृति, कला और तकनीक की जिन ऊंचाइयों के साथ वो नृत्य किया है और वो गीत गाया है, वो अद्भुत है. लय और गति का वैसा नैसर्गिक आवेग नहीं दिखता. जैक्सन के पास भी वो नहीं थी. प्रिस्ले में भी एक अवाँगार्दियन खिंचाव था लेकिन शकीरा इन सबसे और अपने समकालीनों से आगे नज़र आती हैं.
अभी मुझे ऐसा लग रहा है कि अवांगार्द की अभी तक की बातें उन्हीं चीज़ों के इर्दगिर्द घूम रही हैं जिनका ज़िक्र असद जी ने बहस की शुरुआत में किया था.
हॉकिंग के मसले पर देवी जी ने जो बातें लिखी हैं उनसे अवाँगार्द की जटिलता के कुछ तंतु सुलझते दिख रहे थे कि तभी मुझे ओरहान पामुक का ख़्याल आ गया.
इस्ताम्बुल को इस लेखक ने अपनी फ़कीराना तबीयत के साथ महसूस किया है. हालांकि वहां एक सजा सजाया अवाँगार्द भी है. 'स्नो' के मुक़ाबले क्या इसी वजह से 'म्युज़ियम ऑफ़ इनोसेंस' एक कमज़ोर उपन्यास तो नहीं. जबकि पामुक अगर इस म्युज़ियम को ज़रा और बिखरा हुआ और मोहब्बत की निशानियों को और छितरा छितरा कर चलते तो शायद ये ज़्यादा बड़ा उपन्यास हो जाता. क़रीब क़रीब जैसे 'मास्टर और मार्गरीता' में है. पता नहीं. ये एक सवाल है मेरे मन में.
पामुक के 'स्नो' का नायक अंततः एक लुटापिटा अवांगार्द है. लहुलूहान 'म्युज़ियम ऑफ इनोसेंस' का नायक भी है लेकिन उसके ज़ख़्म ज़रा पहले देख लिए गए जान पड़ते हैं. कभी कभी ऐसा लगता है कि अफ़सोस और तक़लीफ़ें और वेदनाएं क़रीने से आ रही हैं और म्युज़ियम में जा रही है.
अवाँगार्द कला की हमारे समय की एक बड़ी प्रतिनिधि पीना बाउष को देखिए. जर्मनी की इस महान नृत्यांगना का पिछले साल देहांत हुआ. अपनी नृत्य संरचनाओं से एक अवांगार्द रचने वाली बाउष का बार बार यही सवाल था कि लोग थिरकते कैसे हैं कि बजाय वो ये जानना चाहती हैं कि वे थिरकते क्यों हैं.
ख़ैर. हम शकीरा पर लौटते हैं. कई गायक स्टेज से परे तेज़ रोशनियों पर निगाहें गड़ा लेते हैं ताकि भीड़ की निगाहों का सामना न करना पड़े. माइकल जैक्सन कहते थे कि उन्हें भीड़ विचलित कर देती है. उन्हें भीड़ से डर लगता था. इसलिए वो स्टेज पर तमाम रोशनियां अपने ऊपर लेते थे. शकीरा इसका ठीक उल्टा करती हैं. वो अपने तकनीशियनों से कहती है कि दर्शकों पर सबसे तेज़ रोशनियां डालें ताकि वो उन्हें देख सकें. तभी संवाद पूरा होता है. मार्केज़ के एक लेख में दर्ज बातचीत में वो कहती हैं कि गाते हुए उन्हें लोगों की आंखों में देखना अच्छा लगता है. कभी कभी वो भीड़ में ऐसे चेहरे देखती है जिन्हें उसने कभी नहीं देखा होता लेकिन वो उन्हें पुराने दोस्तों की तरह याद करती है. एक बार तो उसने एक ऐसे आदमी को पहचान लिया जो कब का मर चुका था. एक बार उसे ऐसा महसूस हुआ जैसे कोई उसे किसी दूसरे जन्म के भीतर से देख रहा हो. शकीरा ने कहा कि वो पूरी रात उसी के लिए गाती रही.
शकीरा का वाका वाका गीत उन लातिन अमेरिकी अफ़्रीकी रोमानों की अथाह गोलाइयों में थिरकता रहता है जिनके अलग अलग प्रतिनिधि इस गीत में शकीरा के साथ शामिल हैं.
शकीरा के इस गीत में कोई व्यवस्था नहीं है, अगर आप बारीकी से देखेंगे तो लगता है कोई तैयारी भी नहीं है.(यूं तकनीक और संपादन का ये एक विरल टुकड़ा है.) लेकिन शकीरा जिन भटकावों और हलचलों के बारे में और जिन भटकावों और हलचलों के लिए गाती हैं वो ही वो नुमायां है वहां. वे न जाने कितनी तड़पती भटकती पछाड़ें खातीं झूमती नाचती आत्माएं हैं कितने प्रेत कितने जिस्म हैं. शकीरा अपने नृत्य में तमाम कलात्मक वैज्ञानिक सांस्कृतिक अनुभव संभव कराती हैं.
क्या शकीरा हमारे समय की सबसे करामाती अवांगार्द हैं. जहां कला विज्ञान चिंतन लेखन कविता संगीत नृत्य जीवन सामाजिकताएं सभ्यताएं संस्कृतियां अस्मिताएं घुलीमिली आती हैं और बारी बारी से या एक साथ शकीरा की नृत्य भंगिमाओं से झरती रहती हैं.
अपने गाने की बिंदास ऊबड़ खाबड़ ज़मीन और अपने नाच की विलक्षण मादकता में जो ऐंद्रिक अनुभव शकीरा के ज़रिए संभव होता है वह उन्हें अपने चाहने वालों की नज़र में सबसे ख़ास बनाता है. शकीरा का ये गाना दुनिया के समस्त अवाँगार्दों के लिए एक आह्वान गीत सरीखा हो सकता है. इसे महज़ एक खेल का प्रमोशन या थीम गीत न माना जाए.
शकीरा के बाद अवाँगार्द के एक और बिंदु पर मैं अपने संशय और दुविधाएं और कुछ मालूमात आप लोगों के साथ शेयर करना चाहूंगा. वो बिंदु अपनी ही तरह के आदमी यानी प्रमोद कौंसवाल की कविता का है, संयोग से जो इस बहस में शामिल दो कवियों देवीप्रसाद मिश्र और लाल्टू के समकालीन भी हैं. तब तक शकीरा और अन्य महानुभावों के हवाले से अवाँगार्द को समझने में कृपया मदद करें.
शिवप्रसाद जोशी
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