Friday, January 13, 2012

आधुनिकतावाद

रोमेंटिक संवेग भोले-भालेपन की मांग करता है और बताता है कि बहुत सी चीज़ों की 'पवित्रता' अभी बची हुई है। यह पवित्रता दरअसल चीज़ों के होने में, उनकी सचाई में यक़ीन का ही दूसरा रूप है कि उनका जादू अभी बाक़ी है। उन्हें आदर और आकर्षण के साथ, इच्छा और दूरी के साथ देखा जाता है। ऐसी एक दुनिया आपके इर्द-गिर्द बन जाती है जो आपको लुभाती है और ऊँचा उठाती है। लेकिन आधुनिकतावाद इस रोमेंटिक संवेग के सुकुमार तंतु को जला देता है। दुनिया और चीज़ें अचानक अपना जादू खो देती हैं, हर चीज़ दाग़ी हो जाती है, हर चीज़ आहार में बदल जाती है, हर चीज़ संदेह में घिर जाती है, वर्तमान और भविष्य और अतीत एक दूसरे में संचरण करते हुए नहीं आते। यह लय, यह सिंफ़नी छिन्न-भिन्न हो जाती है, तार बीच में से टूट जाता है। आप पतंग की तरह आकाश में हल्के हो अनायास उठते चले जाएं, इसके बजाए पतंग कट-फट कर किसी कँटीली झाड़ी में उलझ जाती है। आधुनिकतावाद उड़ते पक्षी को मारकर क़दमों में गिरा देता है। इस तरह का टेढ़ापन और सिनिसिज़्म आधुनिकतावाद के लिए ज़रूरी है।

लेकिन आधुनिकतावाद रोमानियत का ही पिछवाड़ा तो है। उसी की असलियत का साक्षात्कार! रोमेंटिसिज़्म ने जिस चीज़ को बना कर दिखाया है, आधुनिकतावादियों ने उसे खोल कर दिखा दिया (या कहें कि रोमेंटिसिज़्म ने रंगाई पुताई की, आधुनिकतावाद ने ब्लीचिंग कर दी)। आधुनिकतावादियों में प्रच्छन्न रोमेंटिक भरे पड़े हैं या कहें कि हर आधुनिकतावादी में एक शर्मिन्दा रोमेंटिक बैठा है तो ग़लत न होगा। जिस तरह हर सिनिक में एक ठगा हुआ और नाराज़ भोला-भाला आदमी बैठा हुआ है।

मनमोहन

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जलसा २०१० ('अधूरी बातें') में प्रकाशित

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