Thursday, November 18, 2010

कुछ बातें / अवाँ गार्दिज़्म - 4 . प्रमोद कौंसवाल के बहाने


हिंदी के युवा कवि प्रमोद कौंसवाल का पहला कविता संग्रह 90 के दशक में आया था. उसका नाम था अपनी ही तरह का आदमी. आसमानी नीले रंग के कवर वाली इस किताब पर अंगूठे की छाप सजाई गई थी, पीछे के फ़्लैप पर कवि परिचय के साथ कवि का एक स्केच था जो ऊबड़खाबड़ सा था और उसमें बाल चश्मा चेहरा अलग अलग ज्यामितियां बनाते थे. संग्रह के नाम और इस फ़ोटो में कुछ संगति सी दिखती थी.


1991 में आई उन कविताओं ने उस दौरान हिंदी में बड़ा ध्यान खींचा. वे एक अलग स्वाद की कविताएं थीं और उनमें मुक्तिबोध, धूमिल, राजकमल चौधरी, ज्ञानरंजन, रघुबीर सहाय, विष्णु खरे की आवाजाही दिखती थी. ताज्जुब न करें कि उनकी ताज़गी की महक क़ायम है.


प्रमोद कौंसवाल की कविताएं हिंदी में जितनी तीव्रता से याद की गईं कमोबेश उतनी ही तेज़ी से उन्हें भुलाने के उपक्रम भी हुए. रुपिन सूपिन के साथ फिर वो सामने आए लेकिन उस समय हिंदी की दुनिया उनका वैसा स्वागत करने के लिए तैयार नहीं जान पड़ी. ऐसा क्यों हुआ इसकी भी छानबीन की ज़रूरत है.


बहरहाल कहना ये है कि प्रमोद की कविता धूल गुबार उड़ाने वाली, चुभने वाली, फटकार, संशय और संताप से भरी हुई और चीख वाली कविता रही है.


इसी ब्लॉग में एक लेख है जिसमें मंगलेश डबराल ने रघुबीर सहाय की कविता के हवाले से नोट किया है कि ताक़त ही ताक़त के ख़िलाफ़ सामर्थ्य से बोलने वाली आवाज़ें एक यथास्थितिवादी ख़ामोशी में सिमट गई हैं. रघुवीर सहाय की कविता में व्यक्त ‘ताकत ही ताकत’ पिछले डेढ़ दशक में कहीं अधिक व्यापक रूप ले चुकी है और हम उसके ख़िलाफ़ चीखना भूल रहे हैं.


प्रमोद कौंसवाल लेट एटीज़ या नब्बे के दशक की शुरुआत की उसी जमात के कवि हैं जहां इस तरह की चीखें आ रही थीं. और ये महज़ चीखने के लिए चीखना जैसा नहीं था.


यही वो दौर था जब मुक्त बाज़ार का दानव बढ़ा चला आ रहा था और भारत की सत्ता राजनीति उसकी छाया के नीचे आधे नमन आधी दहशत में हिचकोले सी खाती हुई खड़ी थी. मध्यवर्गीय समाज के नलों से उपयोगितावाद बहने लगा था और जैसा कि प्रमोद की कविता में है कि हिंदू हिंदू कहना चिल्लाना हो गया था.


अब मेरा संशय है कि प्रमोद कौंसवाल हिंदी की युवा कविता में जिस स्वर के प्रतिनिधि हैं उसे अवांगार्द कहना चाहिए या नहीं. अवांगार्द के लिए अवांगार्द होना करना तो ठीक नहीं होगा. अगर अवांगार्दिज़्म के पैमाने पर उन्हें परखें तो क्या वो अवांगार्द अवांगार्द होते होते निकलेंगें या वो कोई और ही धज होगी. उन्होंने अपनी ही तरह का एक बीहड़ जीवन बिताया है जिसमें धूल धिक्कार प्रताड़ना तारीफ़ सम्मान बहक दुर्घटना नौकरी सबकुछ शामिल है. टिहरी दिल्ली मेरठ चंडीगढ़ फिर दिल्ली नोएडा की खाक छानी है. वो अपनी ही कविता के एक लुटेपिटे हैरान से थकान से चूर खून और गर्द से भरे चेहरे वाले आदमी सरीखे हैं.


मैं इसी बेवक़्त कहे जाने वाले समय का ग़वाह बना
और आप जानते ही हैं
दृश्य में दिखा भी नहीं।


गुस्सा ऊब चिढ़ ये सब क्यों नहीं है कविता में, ये उन्होंने अपनी एक कविता में पूछा भी था. उनके चेहरे पर पहाड़ और मैदान का उबड़खाबड़पन है, कहने को बड़ा सौम्य कमसिन चेहरा उनका रहा है. वो एक नंबर के ज़िद्दी हैं. उनमें रूसी उपन्यासों के नायकों जैसी अजीबोग़रीब फ़ितरत है. यानी एक फ़लसफ़ाई बेचैनी, संदेहवाद, आशंका, अंतर्द्वंद्व, विरोधाभास, झक्कीपना, असहमति, दो टूक सा रवैया.


और एक ललकार या एक हुंकार भी वहां है जो भीतर तड़कती है और वहीं गिर जाती है. कविता में उसके तपते हुए छींटे गिरते रहते हैं. तारों का जैसा विस्फोट भौतिकी में नुमायां होता है वैसा प्रमोद कौंसवाल की कविता में आया है.


मैंने दलित को दलित नहीं
काफी ग़रीब और कुचला हुआ कहा
मैंने भारत की संसद के बाहर जाकर
खाक़ उड़ाई और हिंदू-हिंदू कहता हुआ
अपने को ही गालियां देकर
शर्म की पोटली लेकर
लौट आया.


यूं तो कोई अवांगार्द कहलाना पसंद न करे या ख़ुश हो, लेकिन कुछ अलग क़िस्म का रच देने वाले विरल मौकों पर शायद अवांगार्दिज़्म का बड़ा योगदान है. अलग और महत्त्वपूर्ण. असद ज़ैदी के कहे मुताबिक संगीत के दुर्लभ मक़ाम को हासिल कर लेने वाला क्षण.


तो इस लिहाज़ से जो अवांगार्द नहीं भी है वो अपनी कहन और अपनी रचना से ऐसा हो सकता है या ऐसी धारा को रिप्रज़ेंट करता हुआ दिख सकता है. ये वही बात है कि मुख्यधारा से अवांगार्दिज़्म फूटे और फिर उसी में धीरे धीरे समाने लगे. टकराते हुए आए और टकराता हुआ लौटे. अवांगार्दिज़्म की मानो यही ख़ूबी है कि वो मंच बनाता सजाता है और फिर उस मंच की सीमाएं तोड़ देता है. वो मंच से नीचे उतर आता है.


खैर. हम प्रमोद कौंसवाल की कविता की चर्चा कर रहे थे. क्या ये उनका अवांगार्दिज़्म ही है जो सीना ठोंककर कहता है, मै क्यों आत्ममुग्ध.


मैं मुग्ध हूं अपने पर
नहीं हो पाया मोहमंग मुझसे ही मेरा

कोई सुनना पसंद नहीं करता ऐसा कवि मैं
कोई नौकरी नहीं देना चाहता ऐसा नौकर
बात नहीं करना चाहता ऐसा वार्ताकार
आंखें नहीं मिलाना चाहता इस तरह का मिलनसार
मेरे सच पर यकीन नहीं करना चाहता
सुनना नहीं चाहता मुझे कोई ऐसा पुजारी


अब इस आत्मफटकार या इस दुख भरी आत्ममुग्धता को आप अवांगार्दिज़्म का एक विकट संकट कहिए या कवि के हवाले से उसका अपना या उसके समाज का संकट. आप ये भी पूछ सकते हैं कि भला इसे अवांगार्दिज़्म कहें ही क्यों. एक सवाल ये है कि हिंदी कविता में अगर कुछ सच्चे अवांगार्द सरीखा है तो उसकी सबसे ज़्यादा चहलपहल कौन से दौर में है. कौन सी पीढ़ी में है.


शिवप्रसाद जोशी

Thursday, November 11, 2010

कुछ बातें / अवाँ गार्दिज़्म – 3. शकीरा शकीरा


अब मैं कुछ और अलग चीजों की तरफ़ ध्यान खींचना चाहता हूं. मेरे ज़ेहन में शकीरा का नाम आता है. यूं तो उनका एक ताज़ा एल्बम आ गया है लेकिन मेरा ध्यान इस समय उनके विश्व कप फ़ुटबॉल 2010 के वाका वाका नृत्य पर है.


शकीरा ने रोमान, संस्कृति, कला और तकनीक की जिन ऊंचाइयों के साथ वो नृत्य किया है और वो गीत गाया है, वो अद्भुत है. लय और गति का वैसा नैसर्गिक आवेग नहीं दिखता. जैक्सन के पास भी वो नहीं थी. प्रिस्ले में भी एक अवाँगार्दियन खिंचाव था लेकिन शकीरा इन सबसे और अपने समकालीनों से आगे नज़र आती हैं.


अभी मुझे ऐसा लग रहा है कि अवांगार्द की अभी तक की बातें उन्हीं चीज़ों के इर्दगिर्द घूम रही हैं जिनका ज़िक्र असद जी ने बहस की शुरुआत में किया था.


हॉकिंग के मसले पर देवी जी ने जो बातें लिखी हैं उनसे अवाँगार्द की जटिलता के कुछ तंतु सुलझते दिख रहे थे कि तभी मुझे ओरहान पामुक का ख़्याल आ गया.


इस्ताम्बुल को इस लेखक ने अपनी फ़कीराना तबीयत के साथ महसूस किया है. हालांकि वहां एक सजा सजाया अवाँगार्द भी है. 'स्नो' के मुक़ाबले क्या इसी वजह से 'म्युज़ियम ऑफ़ इनोसेंस' एक कमज़ोर उपन्यास तो नहीं. जबकि पामुक अगर इस म्युज़ियम को ज़रा और बिखरा हुआ और मोहब्बत की निशानियों को और छितरा छितरा कर चलते तो शायद ये ज़्यादा बड़ा उपन्यास हो जाता. क़रीब क़रीब जैसे 'मास्टर और मार्गरीता' में है. पता नहीं. ये एक सवाल है मेरे मन में.


पामुक के 'स्नो' का नायक अंततः एक लुटापिटा अवांगार्द है. लहुलूहान 'म्युज़ियम ऑफ इनोसेंस' का नायक भी है लेकिन उसके ज़ख़्म ज़रा पहले देख लिए गए जान पड़ते हैं. कभी कभी ऐसा लगता है कि अफ़सोस और तक़लीफ़ें और वेदनाएं क़रीने से आ रही हैं और म्युज़ियम में जा रही है.


अवाँगार्द कला की हमारे समय की एक बड़ी प्रतिनिधि पीना बाउष को देखिए. जर्मनी की इस महान नृत्यांगना का पिछले साल देहांत हुआ. अपनी नृत्य संरचनाओं से एक अवांगार्द रचने वाली बाउष का बार बार यही सवाल था कि लोग थिरकते कैसे हैं कि बजाय वो ये जानना चाहती हैं कि वे थिरकते क्यों हैं.


ख़ैर. हम शकीरा पर लौटते हैं. कई गायक स्टेज से परे तेज़ रोशनियों पर निगाहें गड़ा लेते हैं ताकि भीड़ की निगाहों का सामना न करना पड़े. माइकल जैक्सन कहते थे कि उन्हें भीड़ विचलित कर देती है. उन्हें भीड़ से डर लगता था. इसलिए वो स्टेज पर तमाम रोशनियां अपने ऊपर लेते थे. शकीरा इसका ठीक उल्टा करती हैं. वो अपने तकनीशियनों से कहती है कि दर्शकों पर सबसे तेज़ रोशनियां डालें ताकि वो उन्हें देख सकें. तभी संवाद पूरा होता है. मार्केज़ के एक लेख में दर्ज बातचीत में वो कहती हैं कि गाते हुए उन्हें लोगों की आंखों में देखना अच्छा लगता है. कभी कभी वो भीड़ में ऐसे चेहरे देखती है जिन्हें उसने कभी नहीं देखा होता लेकिन वो उन्हें पुराने दोस्तों की तरह याद करती है. एक बार तो उसने एक ऐसे आदमी को पहचान लिया जो कब का मर चुका था. एक बार उसे ऐसा महसूस हुआ जैसे कोई उसे किसी दूसरे जन्म के भीतर से देख रहा हो. शकीरा ने कहा कि वो पूरी रात उसी के लिए गाती रही.


शकीरा का वाका वाका गीत उन लातिन अमेरिकी अफ़्रीकी रोमानों की अथाह गोलाइयों में थिरकता रहता है जिनके अलग अलग प्रतिनिधि इस गीत में शकीरा के साथ शामिल हैं.


शकीरा के इस गीत में कोई व्यवस्था नहीं है, अगर आप बारीकी से देखेंगे तो लगता है कोई तैयारी भी नहीं है.(यूं तकनीक और संपादन का ये एक विरल टुकड़ा है.) लेकिन शकीरा जिन भटकावों और हलचलों के बारे में और जिन भटकावों और हलचलों के लिए गाती हैं वो ही वो नुमायां है वहां. वे न जाने कितनी तड़पती भटकती पछाड़ें खातीं झूमती नाचती आत्माएं हैं कितने प्रेत कितने जिस्म हैं. शकीरा अपने नृत्य में तमाम कलात्मक वैज्ञानिक सांस्कृतिक अनुभव संभव कराती हैं.


क्या शकीरा हमारे समय की सबसे करामाती अवांगार्द हैं. जहां कला विज्ञान चिंतन लेखन कविता संगीत नृत्य जीवन सामाजिकताएं सभ्यताएं संस्कृतियां अस्मिताएं घुलीमिली आती हैं और बारी बारी से या एक साथ शकीरा की नृत्य भंगिमाओं से झरती रहती हैं.


अपने गाने की बिंदास ऊबड़ खाबड़ ज़मीन और अपने नाच की विलक्षण मादकता में जो ऐंद्रिक अनुभव शकीरा के ज़रिए संभव होता है वह उन्हें अपने चाहने वालों की नज़र में सबसे ख़ास बनाता है. शकीरा का ये गाना दुनिया के समस्त अवाँगार्दों के लिए एक आह्वान गीत सरीखा हो सकता है. इसे महज़ एक खेल का प्रमोशन या थीम गीत न माना जाए.


शकीरा के बाद अवाँगार्द के एक और बिंदु पर मैं अपने संशय और दुविधाएं और कुछ मालूमात आप लोगों के साथ शेयर करना चाहूंगा. वो बिंदु अपनी ही तरह के आदमी यानी प्रमोद कौंसवाल की कविता का है, संयोग से जो इस बहस में शामिल दो कवियों देवीप्रसाद मिश्र और लाल्टू के समकालीन भी हैं. तब तक शकीरा और अन्य महानुभावों के हवाले से अवाँगार्द को समझने में कृपया मदद करें.


शिवप्रसाद जोशी

Tuesday, November 9, 2010

कुछ बातें / अवाँ गार्दिज़्म - 2. संगीत और भौतिकी


संगीत और भौतिकी के ये अवांगार्द


संगीत के बारे में असद ज़ैदी की टिप्पणी के संदर्भ में ख़्याल आता है भौतिकी का. उसमें भी कॉस्मोलॉजी को लें. आइन्श्टाइन जिस चीज़ पर ठिठक गए थे उसे उनके बाद यूं तो कई बुलंद वैज्ञानिकों ने रह रह कर उठाने समझाने की कोशिश की लेकिन उस बात को सबसे स्पष्ट तार्किकता और खरी ज़िद के साथ कहने वाले निकले स्टीफ़न हॉकिंग. ईश्वर पासे नहीं खेलता कि आइन्श्टाइन की बात पर हॉकिंग ने कहा कि वो सिर्फ़ खेलता है बल्कि उन्हें ऐसी जगह बिखेर भी देता है कि वे ढूंढें नहीं मिलते. ईश्वर की खिल्ली उड़ाने का इरादा दोनों महानुभावों में से किसी का भी नहीं था. लेकिन ब्रह्मांड के रहस्यों को नापने के लिए अपना फीता लेकर जाने का उन्हें कोई बहुत शौक रहा होगा. खैर...


आइन्श्टाइन तोड़फोड़ मचाने से ज़रा घबराए आख़िर में लेकिन हॉकिंग अपनी उस लगभग मिथकीय हो चुकी लटकी हुई गर्दन और उस विख्यात इलेक्ट्रॉनिक चेयर पर बैठे हुए ऐसे ऐसे फ़लसफ़े ला रहे हैं कि ब्रह्मांड को समझने के औजार खुलने के साथ ही पुराने से पड़ते हुए दिखते हैं. हॉकिंग का संगीत ज्ञान आइन्श्टाइन के संगीत ज्ञान से ज़ाहिर है आगे का रहा है. मोत्सार्ट पर उनकी विलक्षण पकड़ है. संगीत को वो भौतिकी का भीतर का कमरा मानते हैं. पहल–90 (इसके बाद ही ज्ञानजी ने पहल बंद करने की सूचना सबको रवाना की थी) में हॉकिंग के एक इंटरव्यू का अनुवाद था. उसमें हॉकिंग ने जो कहा वो कला की उन उद्दाम ऊंचाइयों की झलक भी दिखाने की कोशिश करता था जहां संगीत और भौतिकी जैसी दो जटिल दुनियाएं एक बिंदु पर थिरकती रहती हैं.


हॉकिंग ज़ाहिर है उसी बिंदु की तलाश में कुर्सी पर बैठे बैठे भटक रहे हैं. आइन्श्टाइन अपने आखिरी दिनों में सिर्फ़ अपने फ़लसफ़े को सही ठहराने की कोशिश कर रहे थे बल्कि वो एक समांतर, समांतर से ज़्यादा बहुत बैचेनी और कामना के साथ कोशिश ये कर रहे थे कि अनिश्चितता के सिद्धांत को सही ठहराने वाला कोई सूत्र देते जाएं. वो ख़ुद को ही झुठलाने को तीव्रता से बेताब थे. कोई नहीं जान सकता कि आइन्श्टाइन जब गए तो खालीपन के कितने भयानक अंधकार के साथ. वो बहुत ज़िद्दी थे. अड़े रहे. ब्रह्मांड एक अदृश्य नियमावली से बंधा है, आइन्श्टाइन ये नहीं मानते हुए जाना चाहते थे.


लेकिन उन्होंने यही माना, वो संगीत के उस आखिरी नोट पर रुक गए कि इस नोट के बाद फिर से शुरू करना पड़ेगा. वो जिसे ख़त्म करना चाहते थे पर वो जारी था. संगीत वॉयलिन के तारों पर नहीं उठा तो वो ख़त्म नहीं हुआ. वो कहां पर ठिठका हुआ है, हॉकिंग ने इसे पकड़ लिया. यही उनकी करामात है. इस तरह हॉकिंग ने भौतिकी और संगीत दोनों की जटिलता के नोट तैयार किए.


ब्रह्मांड भौतिकी के वो अवांगार्द है. सोचिए एक अवांगार्द अपनी क़िस्म के आइन्श्टाइन थे जो साइंस की एक अविश्वसनीय झक में घर का पता भी भूल सकते थे और ख़ुद को भी. और एक अवांगार्द हॉकिंग हैं जिनकी इस मोटर न्यूरान बीमारी को देखते हुए चिकित्सा के धुरंधरों ने कह दिया था कि अव्वल तो वो जीवित नहीं बचेंगें और अगर बच गए तो संतान तो कभी नहीं पैदा कर पाएंगें. हॉकिंग के तीन बच्चे हैं और अब तो वो नाती पोतों वाले हैं. अपनी ज़िंदगी के क़रीब तीसरे दशक से कुर्सी पर बैठा एक इंसान आख़िर कौन होगा. वो तो कोई जिद्दी अवांगार्द ही होगा. और किताबें लिखता रहता होगा और चर्च और धर्म और पारंपरिक विज्ञान को तंग करता रहता होगा.


ये भी नोट करने वाली बात है कि इन वैज्ञानिकों के उत्पाती मिज़ाज को बाज़ार की शक्तियां नहीं नाथ पाई हैं. हॉकिंग तो एक बार ऐसे प्रयोग में जा घुसे जहां उन्हें शून्य गुरुत्व का अहसास दिलाया जाना था. मेरे विचार में ये शायदएस्थेटिक पोज़ीशननहीं होगी. उनका अवांगार्द ही है जो नोबेल वालों की अभी उनपर कोई दृष्टि नहीं जा रही. पर अगली बार उन्हें संयोग से नोबेल मिल जाए तो आप ये कहें कि अब काहे का अवांगार्द. उन्हें नोबेल मिलने दीजिए फिर उनके नोबेल भाषण का इंतज़ार कीजिए.


शिवप्रसाद जोशी 9.11.2010

Saturday, November 6, 2010

कुछ बातें / सांस्कृतिक बाज़ारवाद

कविता के लिए यह वाकई कठिन दौर है क्योंकि अस्वीकार, विरोध और प्रतिरोध के मोर्चे पर वह लगभग अकेली है। कोई पैंतीस साल पहले रघुवीर सहाय ने एक कविता में कहा था ‘एक और ही युग होगा जिसमें ताकत ही ताकत होगी और चीख न होगी।’ यह एक तरह से भविष्य-कथन था जिसका सच आज बहुत अधिक महसूस होता है जब हम खुद को ताकत के वििभन्न और भयावह तंत्रों के घिराव में पाते हैं। अमेरिका, बहुराष्ट्रीय निगम, उपभोक्ता बाजार, गैर-उत्पादक क्रय-विक्रय तंत्र और मीडिया इस शक्ति सरंचना के प्रमुख घटक हैं जिन्होंने मनुष्य को नये सिरे से इतना पराधीन बना दिया है कि वह चीखने में असमर्थ है, कोई शिकायत नहीं करता और यह भी जान गया है कि गुलामी के अपने मजे हैं। इसके साथ यह दुर्घटना भी हुई है कि भारतीय अंग्रेज़ी उपन्यास की तरह हिंदी साहित्य मीडिया के बहुत पास आ गया है, लगभग उसका हिस्सा बन रहा है और उसमें अस्वीकार करने, प्रतिपक्ष की भूमिका निभाने की नैतिक चेतना काफी कम हो चली है। जाने-अनजाने वह मीडिया की दो प्रमुख विशेषताओं - यथास्थिति और मनोरंजन-धर्मिता - को अपना रहा है, यथार्थ के अनुभवों को तटस्थ और निस्संग तरीके से दर्ज कर रहा है लेकिन उसमें ‘नैतिक अस्वीकार’ की प्रवृत्ति तेजी से कम हो रही है। रघुवीर सहाय की कविता में व्यक्त ‘ताकत ही ताकत’ पिछले डेढ़ दशक में कहीं अधिक व्यापक रूप ले चुकी है और हम उसके खिलाफ चीखना भूल रहे हैं। आधुनिक मीडिया राजनैतिक घटनाओं के विवरण भी गैर-राजनीतिक और सनसनीखेज स्तर पर पेश करता है और चीखने या प्रतिरोध करने की प्रेरणा नहीं देता। आज का अधिकतर गद्य साहित्य इसी राह पर चलता दिखाई देता है और कविता भी उससे अछूती नहीं रह पायी है। पिछले दिनों एक युवा कवि की एक कविता की काफी चर्चा हुई जिसमेें इस आशय की पंक्तियां थीं कि कार्ल मार्क्स एक बंद कारखाने के अहाते में उगे हुए पीपल के पेड़ की तरह हैं जहां हम कभी कभी चले जाते हैं और अनुष्ठान की तरह पानी चढ़ा आते हैैं। इस कविता में व्यक्त अनुभव की सच्चाई और यथास्थिति की ईमानदारी पर संदेह भले न किया जाये लेकिन उसमें कोई नैतिक अस्वीकार नहीं दिखता। शायद हमारी या हमसे पहले की, प्रगतिशील विचारों से संचालित पीढ़ियां यह नहीं लिख सकती थीं। जाहिर है, ऐसी पंक्तियां सांस्कृतिक बाजारवाद और मीडिया के समय में ही संभव थीं।

इस सांस्कृतिक बाजारवाद का एक रूप कविता से लोकप्रियतावादी मांगों की शक्ल में प्रकट हो रहा है। कुछ आलोचकों और कवियों ने यह कहना शुरू कर दिया है कि हमारी कविता जटिल दुर्बोध है और उसमें सरलता उपलब्ध करने के लिए छंद की वापसी होनी चाहिए। ऐसी लोकप्रियतावादी अपेक्षाएं युवा कविता के लिए भ्रामक और खतरनाक ही साबित होंगी क्योंकि छंद की वापसी का आग्रह दरअसल निहायत रूपवादी है जो हमें फिर से लोकजीवन के घिसे-पीटे-पिलपिले बिंबों, गीत गजल (वह भी हिंदी), गेयता, मुक्तक और फिल्मी गानों की तरफ और इस तरह कविता के तरलीकरण - डायल्यूशन - की और ले जायेगा और इसमें कोई नयी बात कतई नहीं होगी क्योंकि हिंदी काव्य पहले से ही गीत-नवगीत आदि के दुष्परिणामों के इतिहास से भरा हुआ है। छंद के नये प्रयोग अगर नागार्जुन और त्रिलोचन की बहुत सारी कविताओं, रघुवीर सहाय की ‘रामदास’ और कुंवर नारायण ‘कांधे धरी यह पालकी’ से आगे नहीं जाते हैं तो वे कविता के काम के नहीं हो सकते। अच्छी छंदहीनता खराब छांदिकता से कहीं बेहतर है और लोकप्रिय कवि लोकप्रिय कविता से कहीं अधिक जरूरी हैं। कविता की तुरंत समझ आ जाने वाली लोकप्रियता की मांगें बाजार के विस्तार के साथ बढ़ने लगी हैं, लेकिन कवि की लोकप्रियता से किसी को सरोकार नहीं है। यहां हम शमशेर बहादुर सिंह को याद कर सकते हैं। उनकी कविता दुरूह है इसलिए अलोकप्रिय मानी जाती है और इस मान्यता के प्रचार में आलोचकों का भी हाथ है। लेकिन शमशेर मनुष्य के रूप में लोकप्रियतावादी कविता या गीत लिखने वाले कवियों से कहीं अधिक लोकप्रिय थे - हालांकि कविता की कठिन शर्तों से डिगने को तैयार नहीं थे।

मंगलेश डबराल सितम्बर 2010
कथादेश से साभार