Tuesday, December 23, 2014

देवी प्रसाद मिश्र कृत 'फ़ासिस्ट' और उसके विभिन्न अनुवाद



देवी प्रसाद मिश्र
फ़ासिस्ट

मैंने कहा कि आप फ़ासिस्ट हैं
तो उसने कहा कि वह मनुष्य है


मैंने कहा कि आप फ़ासिस्ट हैं
तो उसने कहा कि वह जनप्रतिनिधि है


मैंने कहा कि आप फ़ासिस्ट हैं
तो उसने कहा कि उसके पास आधार कार्ड है


मैंने कहा कि आप फ़ासिस्ट हैं
तो उसने कहा कि वह शाकाहारी है 


मैंने कहा कि आप फ़ासिस्ट हैं
तो उसने कहा कि मुद्दा विकास है


(मैंने बिनास सुना)

मैंने कहा कि आप फ़ासिस्ट हैं
तो उसने कहा कि उसके पास तीस फ़ीसदी का बहुमत है
सत्तर फ़ीसदी के अल्पमत की तुलना में


मैंने कहा कि आप फ़ासिस्ट हैं तो उसने कहा कि
गांधी को हमने नहीं मारा हममें से किसी ने उन पर गोली चला दी 


मैंने कहा कि आप फ़ासिस्ट हैं
तो उसने कहा कि अब जो कुछ हैं हमीं हैं

--
(जनवरी में प्रकाश्य 'जलसा' ४ संकलन से उद्धृत)


* * *

1.
THE FASCISTS

I said, You are a fascist.
He said he is human.

I said, You are a fascist.
He said he is people’s representative.

I said, You are a fascist.
He said he has the Aadhaar Card.

I said, You are a fascist.
He said he is a vegetarian.

I said, You are a fascist.
He said the issue is development.

(I sensed ruin )

I said, You are a fascist. He said he has a majority
of thirty percent against seventy.

I said, You are a fascist.
He said, We did not kill Gandhi. Only someone who was with us fired at him.

I said, You are fascists.
He said, But then we alone are.

(Tr. Rajesh Sharma)

* * *

2.
SIR, YOU’RE A FASCIST


I said - Sir, you're a fascist
He said - No, I'm just a human being

I said - Sir, you're a fascist
He said he represents the people

I said - Sir, you're a fascist
He said he holds an Aadhar Card

I said - Sir, you're a fascist
He said he is a vegetarian

I said - Sir, you're a fascist
He said agenda is development

(I heard desolate)

I said - Sir, you're a fascist
He said he has a majority of thirty percent
against a minority of seventy

I said - Sir, you're a fascist
He said we didn't kill Gandhi, someone from the gang
just took a shot at him

I said - Sir, you're a fascist
He said - drop it mate
Whatever we are, we're everything.

(Tr. Tarun Bhartiya)

* * *

3.
THE FASCIST

I said you are a fascist
He said just human

I said fascist
He said elected

I said fascist
He had his Aadhaar Card

I said you are a fascist
Vegetarian he said

Fascist!
The issue is Development he said

(I heard slaughter)

You are a fascist
But a majority of thirty
over minor-ities of seventy he said

I said fascist and he said we didn’t
Kill Gandhi … a patriot fired a shot

A fascist you are, I said
Whatever, there’s now only us, he said

(Tr. Asad Zaidi)


 * * *


फॅसिस्ट

मी म्हटलो, तू फॅसिस्ट आहेस
तो म्हणाला, मी माणूस आहे


मी म्हटलो, तू फॅसिस्ट आहेस
तो म्हणाला, मी लोकप्रतिनिधी आहे


मी म्हटलो, तू फॅसिस्ट आहेस
तो म्हणाला, माझ्याजवळ आधारकार्ड आहे


मी म्हटलो, तू फॅसिस्ट आहेस
तो म्हणाला, मी शाकाहारी आहे


मी म्हटलो, तू फॅसिस्ट आहेस
तो म्हणाला, मुद्दा विकासाचा आहे


(मला 'विनाशाचा' असं ऐकू आलं-)


मी म्हटलो, तू फॅसिस्ट आहेस
तो म्हणाला, माझ्याकडे तीस टक्के बहुमत आहे
सत्तर टक्के अल्पमताच्या तुलनेत


मी म्हटलो, तू फॅसिस्ट आहेस तर तो म्हणाला,
गांधीला आम्ही नाही गोळ्या घातल्या आमच्यापैकी कुणीतरी त्याला मारलं


मी म्हटलो, तू फॅसिस्ट आहेस
तो म्हणाला, आता जे काही आहोत ते आम्हीच.


(अनुवाद : गणेश विस्पुते)

 * * *



فاشسٹ
دیوی پرساد مشر کی تازہ نظم


میں نے کہا آپ فاشسٹ ہیں
تو اس نے کہا کہ وہ انسان ہے


میں نے کہا آپ فاشسٹ ہیں
تو اس نے کہا کہ وہ عوامی نماُندہ ہے


میں نے کہا آپ فاشسٹ ہیں
تو اس نے کہا کہ اسکے پاس آدھار کارڈ* ہے


میں نے کہا آپ فاشسٹ ہیں
تو اس نے کہا کہ وہ شاکاہاری** ہے


میں نے کہا آپ فاشسٹ ہیں
تو اس نے کہا کہ اصل مسٗلہ ترقّی ہے


 (میں نے تنزل سنا)

میں نے کہا آپ فاشسٹ ہیں
تو اس نے کہا کہ اس کے پاس تیس فیصد کی اکثریت ہے
ستّر فیصد کی اقلیت کے مقابل


میں نے کہا آپ فاشسٹ ہیں تو اس نے کہا کہ
گاندھی کو ہم نے نہیں مارا ہم میں سے کسی نے ان پر گولی چلا دی


میں نے کہا آپ فاشسٹ ہیں
تو اس نے کہا کہ اب جو کچھ ہیں ہمیں ہیں
 

(ترجمہ اسد زیدی)
حواشی : *آدھار کارڈ ۔ ہندوستان میں ہر شہری کو دیا جانے والا شناختی کارڈ **شاکاہاری ۔ ویجیٹیرین

Tuesday, April 29, 2014

एक कवि सदा के लिए


"Pan Tadeusz"
Tadeusz Różewicz, 1921-2014


To write poetry after Auschwitz is barbaric, and this corrodes even the knowledge of why it has become impossible to write poetry today.” (Adorno)

Is poetry possible after Auschwitz?

In the work of quite a few poets – Tadeusz Różewicz and Paul Celan among them – we find a recognition of, and a serious attempt to answer, the troubling question. Of all nationalities and languages, it is the Polish who took up the challenge to address it urgently and collectively. Thus was formed the ethics and poetics of post-War Polish poetry. A whole generation of poets were immersed in it – the most eminent among them was the now well-known quartet of Tadeusz Różewicz, Zbigniew Herbert, Wisława Szymborska, Czesław Miłosz.  Their voice reached much beyond Europe and in case of Różewicz transcended the barriers of language and culture to influence every human being who even randomly came in touch with it.

Różewicz brought his avant garde instinct to bear upon the most austere and ethically sustainable poetic tradition in the twentieth century. This makes him a genuine successor of César Vallejo and to some extent Bertolt Brecht, the great poets of the inter-war years, and outside his generation of Polish poets he had the company of contemporaries like Paul Celan and Andrei Voznesensky.

A few centuries down the line, if the civilisation still survives, he would come across as well as the great poets of the Tang era, the medieval Persia, the Punjabi Sufi tradition or the Urdu classicism still do today.

————
GRASS

I grow
in the bondings of walls 

where they are
joined
there where they meet
there where they are vaulted


there I penetrate
a blind seed 

scattered by the wind

patiently I spread
in the cracks of silence
I wait for the walls to fall 

and return to earth

then I will cover 
names and faces

1962
Tr. Adam Czerniawski

———

घास

मैं उगती हूँ
दीवारों की संधि में
वहाँ जहाँ वे
जुड़ती हैं
वहाँ जहाँ वे आ मिलती हैं
वहाँ जहाँ वे मेहराबदार हो जाती हैं

वहाँ मैं बो देती हूँ
एक अंधा बीज
हवाओं का बिखेरा गया

धैर्य के साथ मैं फैलती हूँ
सन्नाटे की दरारों में
मुझे इन्तिज़ार है दीवारों के गिरने
और ज़मीन पर लौटने का

तब मैं ढक लूँगी
नाम और चेहरे

१९६२
अनुवाद : असद ज़ैदी

Sunday, January 6, 2013

जलसा (संकलन 3 : एक सदी)


 जलसा 3 (एक सदी)


रचनाक्रम :

एक जन्मशताब्दी और बीसवीं सदी से कुछ मौतें
विस्वावा शिम्बोर्स्का : कविताएँ : सदी के मोड़ पर, बहन की प्रशंसा में       
लाल्टू : कविता : शब्द मिले अनंत तो क्यों प्रलापमय   
सईद अख्‍तर मिर्ज़ा : सलाम अलैकुम, अम्मी (अनु.: भारतभूषण तिवारी)   
पंकज चतुर्वेदी : सात कविताएँ       
देवी प्रसाद मिश्र की कुछेक कविताएँ        
हरि मृदुल : सात कविताएँ         
हेमंत शेष : वर्णमाला: पैंसठ कहानियाँ        
त्रिभुवन : सत्रह कविताएँ        
कमलानाथ : कहानी : भौंर्या मो    
शुभा : गद्य : उजड़े हुए प्रवासी की डायरी से       
शिवप्रसाद जोशी : संगीतघर - पाँच कविताएँ       
दीपक बनर्जी : अमीर ख़ाँ: आदमी और संगीत (अनु.: अशोक पांडे)   
सफ़दर शामी : अमीर ख़ाँ - कुछ रेखाचित्र     
हिमांशु कुमार : सात कविताएँ         
अंशु मालवीय : कविता : आओ क़साब को फाँसी दें        
सौम्य मालवीय : कविता : क़साब       
एड्रिएन रिच : कुछ कविताएँ एक निबंध (अनु.: भारतभूषण तिवारी)   
मिलोश मात्सोउरेक : बाल कहानियाँ (अनु.: असद ज़ैदी)  

और कुछ तस्वीरें
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Friday, November 30, 2012

क़साब : दो कविताएँ

अंशु मालवीय
"आओ क़साब को फाँसी दें !"


उसे चौराहे पर फाँसी दें !
बल्कि उसे उस चौराहे पर फाँसी दें
जिस पर फ़्लडलाइट लगाकर
विधर्मी औरतों से बलात्कार किया गया
गाजे-बाजे के साथ
कैमरे और करतबों के साथ
लोकतंत्र की जय बोलते हुए

उसे उस पेड़ की डाल पर फाँसी दें
जिस पर कुछ देर पहले खुदकुशी कर रहा था किसान
उसे पोखरन में फाँसी दें
और मरने से पहले उसके मुँह पर
एक मुट्ठी रेडियोएक्टिव धूल मल दें

उसे जादूगोड़ा में फाँसी दें
उसे अबूझमाड़ में फाँसी दें
उसे बाटला हाउस में फाँसी दें
उसे फाँसी दें...कश्मीर में
गुमशुदा नौजवानों की बेनिशान क़ब्रों पर

उसे एफ़.सी.आई. के गोदाम में फाँसी दें
उसे कोयले की खदान में फाँसी दें.
आओ क़साब को फाँसी दें !!

उसे खैरलांजी में फाँसी दें
उसे मानेसर में फाँसी दें
उसे बाबरी मस्जिद के खंडहरों पर फाँसी दें
जिससे मज़बूत हो हमारी धर्मनिरपेक्षता
कानून का राज कायम हो

उसे सरहद पर फाँसी दें
ताकि तर्पण मिल सके बँटवारे के भटकते प्रेत को

उसे खदेड़ते जाएँ माँ की कोख तक... और पूछें
ज़मीनों को चबाते, नस्लों को लीलते
अज़ीयत देने की कोठरी जैसे इन मुल्कों में
क्यों भटकता था बेटा तेरा
किस घाव का लहू चाटने ....
जाने किस ज़माने से बहते हैं
बेकारी, बीमारी और बदनसीबी के घाव.....

सरहद की औलादों को ऐसे ही मरना होगा
चलो उसे रॉ और आई.एस.आई. के दफ़्तरों पर फाँसी दें
आओ क़साब को फाँसी दें !!

यहाँ न्याय एक सामूहिक हिस्टीरिया है
आओ क़साब की फाँसी को राष्ट्रीय उत्सव बना दें

निकालें प्रभातफेरियाँ
शस्त्र-पूजा करें
युद्धोन्माद,
राष्ट्रोन्माद,
हर्षोन्माद
गर मिल जाए कोई पेप्सी-कोक जैसा प्रायोजक
तो राष्ट्रगान की प्रतियोगिताएँ आयोजित करें
कंगलों को बाँटें भारतमाता की मूर्तियाँ
तैयारी करो कम्बख़्तो ! फाँसी की तैयारी करो !

इस एक फाँसी से
कितने मसले होने हैं हल
निवेशकों में भरोसा जगना है
सेंसेक्स को उछलना है
ग्रोथ रेट को पहुँच जाना है दो अंकों में

कितने काम बाक़ी हैं अभी
पंचवर्षीय योजना बनानी है
पढ़नी है विश्व बैंक की रपटें
करना है अमरीका के साथ संयुक्त युद्धाभ्यास
हथियारों का बजट बढ़ाना है...
आओ क़साब को फाँसी दें !

उसे गाँधी की समाधि पर फाँसी दें
इस एक काम से मिट जायेंगे हमारे कितने गुनाह

हे राम ! हे राम ! हे राम !..."


---



सौम्य मालवीय
क़साब
 

एक अरसा हो गया था क़साब

सुनते हुए तुम्हारा नाम

इस बीच ये भी पढ़ा अख़बारों में कि कब तुमने जम्हाई ली!

किसी सत्र में तुम मुस्कुराये भी शायद!

कुछ जिरह की अपनी तरफ़ से

अपने वकील से कहा कुछ

और भी बहुत कुछ सुना, पढ़ा, देखा तुम्हारे बारे में कई बार

इतना कि कुछ अपनापन सा हो गया था तुमसे!

जैसे हमारे असंदिग्ध नरक में तुम देर तक और दूर तक चलने वाला

कोई इंतज़ाम हो गए थे

समाचार चैनल आये दिन

तुम पर 'ओपिनियन पोल' चलाते थे

और ख़ुश थीं मोबाइल कम्पनियाँ की राष्ट्रहित में बटन दबाने को

कई तत्पर और तत्सम भारतीय

सदैव तैयार होते थे

पुटुर-पुटुर, पट-पट

दाहिने-बाएँ, दाहिने-बाएँ

पुटुर-पुटुर, पट-पट

फिर एक दिन अचानक

एक निष्कपट से लग रहे बुधवार को

दुनिया के सबसे बड़े लोकतंत्र ने

तुम्हें फाँसी पर लटका दिया

गहरी गोपनीयता में मगर,

चुपचाप, गुपचुप-गुपचुप

दम साधे रहस्य का तम साधे हुए

यरवदा जेल के गाँधी अनुप्राणित वातावरण में

तुम्हारी झूलती हुई देह वह अक्ष बनी

जिस पर थिर हुआ राजनीतिक संतुलन

और कुछ संतरियों, अधिकारियों और

एक सरकारी डॉक्टर के बीच

जनतंत्र शिरोमणि हुआ!

पर जो भी हुआ इस ख़ामोश-लबी के साथ क्यूँ हुआ

तुम कोई भगत सिंह तो थे नहीं !

कि जेल के दरो-दीवार तक इस फ़ैसले से

बग़ावत कर उठते

फिर ये एहतियात ये चुप्पा-घात क्यूँ?

शायद इसलिए कि प्रतिशोध

चाहे वह दुनिया के

सबसे बड़े लोकतंत्र ने ही क्यूँ न लिया हो

कहीं न कहीं लज्जास्पद भी होता है

क्या तुमसे इंतक़ाम लेकर

कुछ घंटों के लिए ही सही

आर्यावर्त शर्मसार हो गया था क़साब !

हत्या के बाद का चेतनालोप

वह जो कुछ देर के लिए हत्यारे को शून्य कर देता है ...

पता नहीं क्यूँ

पर लोकतंत्र की इस तरतीब से मुझे

भगत सिंह का ध्यान हो आया है

भगत सिंह, क़साब तुम जानते नहीं होगे शायद

वह बीसवीं सदी के बसंत का

एक क्रांतिचेता बीज था

तुम्हें तो यह कौल भी नहीं होगा

कि तुमने जो क्या वो क्यूँ किया

पर उसे क़साब, भगत सिंह को

वह जो गुजराँवाला पाकिस्तान में जन्मा था

उसे सब पता था

जैसे इतिहास की कच्छप गति

कब ख़रगोश की तरह हो जाती है

और किस तरह वह एक गहरे गढ्ढे में गिर जाता है

इसलिए क़साब भगत सिंह

एक कठिन चुनौती था

उसे मारा ब्रिटिश हुकूमत ने यूँ ही मुँह चुराकर

जैसे नवम्बर की एक सुबह

कुहासे का भेद छटने से पहले ही तुम्हें

फाँसी पर लटका दिया

पर तुम क़साब

कोई फ़लसफ़ाई इंक़लाबी तो थे नहीं

कार्गो पहने और कलाशनिकोव से अँधाधुंध गोलियाँ बरसाते

तुम किसी विडियो-गेम के मूर्तिमना पात्र जैसे मालूम हुए थे

और फिर ये मीडिया वाले तो तुम्हें

आतंकी का भी ओहदा नहीं देते क़साब

वे तो तुम्हे बंदूक़धारी या 'गनमैन' बुलाते हैं

तुम तो शायद बिना जाने ही मर गए

कि तुमने क्या किया

और ख़ुदा जाने जन्नत का एक पाक परिंदा बनने का

तुम्हारा सपना पूरा हुआ भी या नहीं

पर हम बहुत अच्छे से जानते हैं कि तुमसे हमें क्या मिला

तुमने हमें अमेरिकी 9/11 की तर्ज पर

अपना, ख़ालिस अपना 26/11 देकर

घटनाओं की दुनिया में स्वराज दिया क़साब

शायद इसीलिए तुम्हे गाँधी के जेल यरवदा ले गए थे ...

तुम शायद "एक्स " थे क़साब

जिसे गणित में सवाल हल करने के लिए फ़र्ज कर लेते हैं

तुमसे भी तो हल किये गए कई सवाल

जैसे कि चुस्त ही हुआ राष्ट्र का समीकरण,

धर्म के प्रमेय सिद्ध हुए,

सत्ता की खंडित ज्यामिति ने अपनी सममिति पा ली

इसीलिए शायद तुम्हें ठिकाने लगाने की योजना को

नाम दिया गया "ऑपरेशन एक्स" ...

क़साब फ़रीदकोट की धरती एक्स ही जनती है

और तुम जानते नहीं कि तीसरी दुनिया में कितने फ़रीदकोट हैं

धरती के चेहरे पर चकत्तों की तरह उभरे हुए

क़साब तुम्हारी मौत

कोई अंत नहीं, एक्स जैसे चरों की चरैवेति है ...

तुम तो मर गए क़साब

पर हमारे लिए कई सवाल पैदा कर गए हो

जैसे अगर विश्व के सबसे शक्तिशाली लोकतंत्र का राष्ट्रपति

13 साल की उम्र में घरबदर हो गया होता

तो उसका क्या होता?

क्या तब भी उसे नोबेल का शांति पुरस्कार मिलता?

जिसे सर पर पहन कर वह यूँ ही ग़ज़ा पर हमले की ताईद करता?

जैसे वह पाकिस्तान में दरगाहें क्यूँ गिरा रहे हैं क़साब?

वैसे ही दरगाहें जिनमे घर से बेज़ार होने के बाद

तुमने कुछ रातें गुज़ारी थीं

जैसे चारमीनार से सट कर मंदिर बन गया है कैसे?

जैसे ये

जैसे वो

जैसे ये चिरायंध कैसी है क़साब

ये धुआँ कैसा है ...

Monday, January 16, 2012

ग़ाज़ियाबाद के बिल्डरों तो आप जानते ही हैं

पत्रिका

ग़ाज़ियाबाद के बिल्डरों तो आप जानते ही हैं
उनमें से एक ने राजनीतिक सांस्कृतिक पत्रिका निकाली

जिसमें विचारधाराओँ वाले लोग
कविताएँ वग़ैरह समीक्षाएँ वग़ैरह विचार वग़ैरह लिखने लगे

पत्रिका निरंतर घाटे में निकल रही थी
लेकिन मालिक को घाटा नहीं हो रहा था वह
नौकरशाहों और मंत्रियों के पास जाया करता था
और पत्रिका के अंक दिखाया करता था

मतलब कि वह बिना यह कहे ताक़तवरों को
डराया करता था कि ये बड़े बड़े विचारक आप पर
बहुत विश्लेषणात्मक तरीक़े से लिख सकते हैं
मतलब कि आप के धंधों पर और आपके घपलों पर
मतलब कि आप भी हमें देश को उजाड़ने दें कि जैसे
हम आपको हर तरह के पतन का मौक़ा दे रहे हैं
नहीं तो जैसा कि मैंने बिना कहे कहा कि
ये बड़े बड़े लोग आप पर बहुत
विश्लेषणात्मक तरीक़े से लिख सकते हैं
और जो अपना विश्लेषण कम करते हैं
और जो आप ही देखिये हम जैसे अपराधियों के पैसे से
कितनी अच्छी और मानवीय पत्रिका निकालते रहते हैं

− देवी प्रसाद मिश्र

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जलसा २०१० ('अधूरी बातें') में प्रकाशित

Friday, January 13, 2012

आधुनिकतावाद

रोमेंटिक संवेग भोले-भालेपन की मांग करता है और बताता है कि बहुत सी चीज़ों की 'पवित्रता' अभी बची हुई है। यह पवित्रता दरअसल चीज़ों के होने में, उनकी सचाई में यक़ीन का ही दूसरा रूप है कि उनका जादू अभी बाक़ी है। उन्हें आदर और आकर्षण के साथ, इच्छा और दूरी के साथ देखा जाता है। ऐसी एक दुनिया आपके इर्द-गिर्द बन जाती है जो आपको लुभाती है और ऊँचा उठाती है। लेकिन आधुनिकतावाद इस रोमेंटिक संवेग के सुकुमार तंतु को जला देता है। दुनिया और चीज़ें अचानक अपना जादू खो देती हैं, हर चीज़ दाग़ी हो जाती है, हर चीज़ आहार में बदल जाती है, हर चीज़ संदेह में घिर जाती है, वर्तमान और भविष्य और अतीत एक दूसरे में संचरण करते हुए नहीं आते। यह लय, यह सिंफ़नी छिन्न-भिन्न हो जाती है, तार बीच में से टूट जाता है। आप पतंग की तरह आकाश में हल्के हो अनायास उठते चले जाएं, इसके बजाए पतंग कट-फट कर किसी कँटीली झाड़ी में उलझ जाती है। आधुनिकतावाद उड़ते पक्षी को मारकर क़दमों में गिरा देता है। इस तरह का टेढ़ापन और सिनिसिज़्म आधुनिकतावाद के लिए ज़रूरी है।

लेकिन आधुनिकतावाद रोमानियत का ही पिछवाड़ा तो है। उसी की असलियत का साक्षात्कार! रोमेंटिसिज़्म ने जिस चीज़ को बना कर दिखाया है, आधुनिकतावादियों ने उसे खोल कर दिखा दिया (या कहें कि रोमेंटिसिज़्म ने रंगाई पुताई की, आधुनिकतावाद ने ब्लीचिंग कर दी)। आधुनिकतावादियों में प्रच्छन्न रोमेंटिक भरे पड़े हैं या कहें कि हर आधुनिकतावादी में एक शर्मिन्दा रोमेंटिक बैठा है तो ग़लत न होगा। जिस तरह हर सिनिक में एक ठगा हुआ और नाराज़ भोला-भाला आदमी बैठा हुआ है।

मनमोहन

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जलसा २०१० ('अधूरी बातें') में प्रकाशित

Wednesday, January 11, 2012

सहस्तर का फूल

सहस्रताल टिहरी-गढ़वाल की भीलांगना घाटी के विकराल पर्वतों पर स्थित एक भीषण ताल है जो कि बहुत दुर्गम है। स्थानीय ग्रामीण जन सहस्रताल को "सहस्तर" पुकारते हैं और कहते हंैं - ‘जर्मन की लड़ाई’, सहस्तर की चढ़ाई। सहस्रताल की यात्रा से लौटने पर एक दिन मैंने यह कामना की :


काश मैं सहस्तर का फूल होती। कोई हृदयहीन हाथ मुझे तोड़ता तो मेरी डाल के असंख्य महीन कांटे उसमें विषैले डंक मारते। कोई मूर्खतापूर्ण शब्दों में मेरी प्रशंसा करता तो सहस्तर की लहरों का गर्जन उसके भोंडे स्वर को कुचल डालता। कोई मुझे सूँघने की जुर्रत करता तो मेरी चीर देने वाली तेज़ कटार सी खुशबू उसे बेहोश कर डालती। मेरा पवित्र एकान्त भंग करने वहाँ बेहया भीड़ न होती। कोई इक्का-दुक्का दर्शक वहाँ आता भी तो भीषण डांगरों को पार कर प्रचन्ड वन से गुज़रता एक एक चट्टान पर पैर जमाता, भूख प्यास सहता, अथक श्रम और साहस से हाँफ़ता यहाँ तक पहुँचता और उन ऊँचाइयों पर मुझे खिला पाकर किसी अज्ञात भाव में डूब कर मुझे देखता।

काश में सहस्तर का फूल होती। मेरी नश्वरता अभिशप्त न होती। मैं बड़ी उछाह से एक दिन सूरज और एक रात चाँद की किरनें पी कर चुपचाप अपार गरिमा के साथ झर जाती और झर कर अपनी ही जड़ों पर गिर पड़ती। सिवाय खिलने के मेरी कोई उपयोगिता न होती। अपने अस्त्तिव का औचित्य मैं स्वयं होती और स्वयं ही अपने अस्त्तिव का प्रमाण होती।

काश मैं सहस्तर का फूल होती। मैं केवल पृथ्वी पर अन्तहीन आकाश के नीचे जीवन का क्षणिक और चमत्कारिक उन्मेष होती।

मैं बिकती नहीं सजती नहीं, आर-पार चिर कर किसी माला का अंग न होती, मैं किसी फूलदान में क़ैद न होती, अर्थियों पर न होती, मैं प्रदर्शनी में न होती, मैं बग़ीचे में न होती, मैं किसी जूड़े का गहना न होती, मैं किसी के प्रेम का प्रतीक न होती, मैं किसी कलाकार की विषयवस्तु न होती, मैं किसी वैज्ञानिक की सामग्री न होती, मैं किसी मन्दिर में न होती। मैं सहस्तर के भयावह दुरूह तट पर खड़ी ऐन अपनी जड़ों पर होती।

काश मैं सहस्तर का फूल होती।

ज्योत्स्ना शर्मा


जलसा 2010 (अधूरी बातें) में संकलित