सहस्रताल टिहरी-गढ़वाल की भीलांगना घाटी के विकराल पर्वतों पर स्थित एक भीषण ताल है जो कि बहुत दुर्गम है। स्थानीय ग्रामीण जन सहस्रताल को "सहस्तर" पुकारते हैं और कहते हंैं - ‘जर्मन की लड़ाई’, सहस्तर की चढ़ाई। सहस्रताल की यात्रा से लौटने पर एक दिन मैंने यह कामना की :
काश मैं सहस्तर का फूल होती। कोई हृदयहीन हाथ मुझे तोड़ता तो मेरी डाल के असंख्य महीन कांटे उसमें विषैले डंक मारते। कोई मूर्खतापूर्ण शब्दों में मेरी प्रशंसा करता तो सहस्तर की लहरों का गर्जन उसके भोंडे स्वर को कुचल डालता। कोई मुझे सूँघने की जुर्रत करता तो मेरी चीर देने वाली तेज़ कटार सी खुशबू उसे बेहोश कर डालती। मेरा पवित्र एकान्त भंग करने वहाँ बेहया भीड़ न होती। कोई इक्का-दुक्का दर्शक वहाँ आता भी तो भीषण डांगरों को पार कर प्रचन्ड वन से गुज़रता एक एक चट्टान पर पैर जमाता, भूख प्यास सहता, अथक श्रम और साहस से हाँफ़ता यहाँ तक पहुँचता और उन ऊँचाइयों पर मुझे खिला पाकर किसी अज्ञात भाव में डूब कर मुझे देखता।
काश में सहस्तर का फूल होती। मेरी नश्वरता अभिशप्त न होती। मैं बड़ी उछाह से एक दिन सूरज और एक रात चाँद की किरनें पी कर चुपचाप अपार गरिमा के साथ झर जाती और झर कर अपनी ही जड़ों पर गिर पड़ती। सिवाय खिलने के मेरी कोई उपयोगिता न होती। अपने अस्त्तिव का औचित्य मैं स्वयं होती और स्वयं ही अपने अस्त्तिव का प्रमाण होती।
काश मैं सहस्तर का फूल होती। मैं केवल पृथ्वी पर अन्तहीन आकाश के नीचे जीवन का क्षणिक और चमत्कारिक उन्मेष होती।
मैं बिकती नहीं सजती नहीं, आर-पार चिर कर किसी माला का अंग न होती, मैं किसी फूलदान में क़ैद न होती, अर्थियों पर न होती, मैं प्रदर्शनी में न होती, मैं बग़ीचे में न होती, मैं किसी जूड़े का गहना न होती, मैं किसी के प्रेम का प्रतीक न होती, मैं किसी कलाकार की विषयवस्तु न होती, मैं किसी वैज्ञानिक की सामग्री न होती, मैं किसी मन्दिर में न होती। मैं सहस्तर के भयावह दुरूह तट पर खड़ी ऐन अपनी जड़ों पर होती।
काश मैं सहस्तर का फूल होती।
ज्योत्स्ना शर्मा
जलसा 2010 (अधूरी बातें) में संकलित
Subscribe to:
Post Comments (Atom)
गद्य के इस टुकड़े को कविता की तरह पढ़ता हूं मैं तो।
ReplyDelete