Thursday, October 28, 2010

कुछ बातें / अवाँ गार्दिज़्म - 1

अवाँ गार्दिज़्म की एक समस्या मुझे लंबे अरसे से परेशान करती रही है : कि अवाँ गार्द का हमेशा अवाँ गार्द बने रहना संभव नहीं होता.

कला में बुनियादी प्रेरणा या ईमान को नए सिरे से खोजने या ईजाद करने की ज़रूरत तब पड़ती है जब प्रचलित कलात्मक पद्धतियाँ अपने समय की शक्ति-संरचना और कामनसेंस के साथ घुल-मिल कर अपना मूलगामी ईमान खो बैठती हैं. वह कला की जगह उपभोग और सुरक्षित निवेश की वस्तु लगने लगती है. उनमें चुनौती की जगह समझौता और चौतरफ़ा समझदारी और मसलेहत ही दिखाई देने लगती है. ऐसे दमघोंटू मध्यवर्गीय माहौल में पुराने बाग़ी कलाकार और उत्साही नई प्रतिभा का खुलकर साँस लेना मुश्किल हो जाता है. वे बग़ावत करते हैं, रिस्क लेते हैं, भले ही इस प्रक्रिया में वे मुख्यधारा से बाहर हो जाएँ.

मुख्यधारा से बाहर जाकर, बल्कि हाशिये से भी बाहर जाकर किया गया काम भी देर-सबेर मुख्यधारा को प्रभावित करने लगता है और अवाँ गार्द के भी दूल्हा बनने की बारी आ जाती है. (बिना विडम्बना के तो न संस्कृति का कोई गुज़र है, न प्रति-संस्कृति का.) इसे कला और साहित्य की दुनिया में पाई जाने वाली एक जीवन शैली समझ लिया जाता है. ख़ुद लेखक और कलाकार ही ऐसा समझने लगते हैं. इस तरह एक सब-कल्चर और अवाँ गार्द का मिथ बनने लगता है. बीसवीं सदी के उत्तरार्ध में और उससे ज़्यादा आज के दौर में अब अवाँ गार्द कला की एक स्वीकृत भंगिमा, एक कमसिन अदा है, और कई विधाओं में तो इसके भी पैसे मिलने लगते हैं. पूंजीवाद अवाँ गार्द को भी जल्दी ही वल्गराइज़ कर डालता है.

इसीलिए मैं समझता हूँ कि सच्चा अवाँ गार्दिज़्म एक ऐतिहासिक मजबूरी या उत्प्रेरणा या कम्पल्शन का नाम है, न कि किसी एस्थेटिक पोज़ीशन का.

अवाँ गार्दिज़्म की राजनीति और सामाजिक आशय को देखे बिना उसकी विश्वसनीयता और उसकी अहमियत को कैसे जानें! हालांकि सुनने में यह बड़ी रूढ़िवादी बात लगती है.

असद ज़ैदी 5.2.2009

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असद साब, यह टुकड़ा कमोबेश आपके पीस से पहले लिख लिया गया था । ज़ाहिर है इसे संवादात्मक ज़रूरत के मुतबिक़ तोड़ा फोड़ा जायेगा।

मैं ज़रा अवांगार्द को सेलेब्रेट करना चाहता हूं । अवां गार्द में असहमति को कहने की जो तड़प होती है – वह काफ़ी बुनियादी चीज़ है । अमूमन देखा यह गया है कि सांस्कृतिक सर्वसत्तावाद के दौर में अवांगर्द पनपता है । इसमें पोस्टर का जो मिज़ाज होता है,, जो एक आउटबर्स्ट होता है, छिन्नभिन्न करने की जो विकलता होती है, ज्वालामुखी का जो एस्थेटिक होता है वह काफ़ी काम कर जाता है । विद्रोही आत्माएं शिल्प का विचलन लेकर भी आती हैं । मेरे ख़याल से अवांगार्द विफलता का शिल्प है । अवांगार्द वाले फिदायिनों की तरह काम करते हैं । यह उत्पात की संस्कृति है जो प्रशासकों और व्यवस्थापकों की नींद तो हराम करती है। मेरे खयाल से यह मामूली बात नहीं है । समयांतर तो अवांगार्द ही बनाता है । सीमांत की बहस को वह बहुत जीवंत तरीक़े से उठा पाता है । अगर वह कोलैबरेशनिस्ट यथास्थितिवाद से उपजा है तो उसकी भूमिका ऐतिहासिक भी हो सकती है। मतलब कि सबवर्ज़न की ज़रूरत तो हर समय बनी रहती है और अगर अवां गार्द यही करता है तो यह बात तो हस्तक्षेपकारी हुई । विजयकुमार की इस बात में दम है कि अवांगार्द अंधी गली होता है जहां केवल रचनाकार का सेल्फ होता है। एक तरह से अपने को और अपनी अंतर्वस्तु को और अपने शिल्प को बहुत निहंग तरीक़े से बिना किसी बिचौलिया के आयत्त करने का दुस्साहस समझना चाहिये अवांगार्द को । अब यह बात कैसी भी लगे लेकिन विनोद कुमार शुक्ल एक चुप्पा अवांगार्द वाली परंपरा के जान पड़ते हैं । मतलब कि हर बार अवांगार्द का जाॅनर हमेशा आवाज़ करे यह ज़रूरी नहीं है । और मुक्तिबोध जो कर सके वह बिना अवांगार्द की स्पिरिट के नहीं कर सकते थे । उनके यहां जो अंधड़ है, जो तूफान है, जो असहमति है, और इस सब को कहने की जो क्षिप्रता है और एस्थेटिक को लेकर जो लापरवाही है उसके पीछे अवांगार्द की भूतग्रस्तता का आत्महंता स्केत्सोफ्रिनिक बल दिखता है । अज्ञेय कविता को जिस तरह से बहुत मैं में ले जाकर आत्महीन बना दे रहे थे उस समय मुक्तिबोध तारकोव्स्की के स्टाकर की तरह पूरे सीन में घूमते हैं – कि तुम्हारे इस सर्वानुमतिवाद को चलने नहीं दूंगा । उस समय मुक्तिबोध मानव बम की तरह सुलग रहे हैं । एक घायल पखेरू की तरह पूरे आकाश में चक्कर काट रहे हैं । सुविधाजनक कविता के प्रजातंत्र में यह अकेली नैतिकता का उज़ाड़ और विषण्ण है । रोना आता है । कि जैसे कोई कलेजे पर घूसे मार रहा हो – अकेले पड़े मुक्तिबोध के बारे में सोचकर ऐसा ही लगता है । इस कोलेबरेशनिस्ट पोएट्री की ऐसी कम तैसी कर दूंगा – यह कहते और करते से लगते हैं मुक्तिबोध। और कर भी दिया । मेरा यह कहना है कि अवांगार्द कोलेबरेशनिस्ट समकालीनता की उपेक्षा का शिकार होता है । कई बार वह ताउम्र आविष्कार की प्रयोगशाला में ही अपने उल्टे सीधे रसायनों की बू के बीच में ही पड़ा रह जाता है । मुक्तिबोध के अंधकार को रामजी राय ने जनता का अंधकार माना और ठीक ही लेकिन श्रीकांत वर्मा, निर्मल वर्मा और अशोक वाजपेयी उनकी आस्तित्विक व्याख्या करते हैं। कीजिये। रामविलास शर्मा भी यही करते हैं । मेरा कहना है कि मुक्तिबोध के अवांगार्द को पावर स्ट्रक्चर द्वारा कोआप्ट करने की जल्दबाजी और रणनीति हिंदी साहित्य का दिलचस्प हिस्सा है । इस हिस्से को जितना ही विखंडित किया जाय साहित्य में सत्ता को समझने के उतने ही टूल विकसित होंगे । मतलब कि अंतत हिंदू देवमाला में बुद्ध के विद्रोह को भी लपेट लिया जायेगा । लेकिन यह भी है कि इस तरह अवांगार्द मुख्यधारा को काफी मानवीय बना देता है । मुख्य धारा के सर्वसत्तावाद – हेजेमनी- में काफ़ी डेंट पड़ता है इस तरह से ।

यौन अराजकता के लिये बाज़ दफ़ा अवांगार्द को कोसा जाता है। लेकिन सामंती नैतिकता के परखच्चे उड़ाने के लिये जिन सिरफिरों की ज़रूरत होती है उसका सामान तो अवांगार्द ही जुटाता है । मिनट भर में वह नैतिकता के धूसर थान को रंग बिरंगे रिबनों में बदल देता है । हिंदी में अकविता वालों की इस भूमिका पर ध्यान जाना चाहिये। हिंदी में यौनिकता के बंद गलियारों में वे बहुत धड़ल्ले से गये । हिंदी में बनी जेल की कोठरियों के एक बड़े हिस्से को ढहाने में उन्होंने बड़ी मदद की । लेकिन इस सब के लिये उन्हें साहित्येतिहास में गालियां भी खूब खानी पड़ी । अवांगार्द दुस्साहसिकता के बार को बहुत ऊपर कर देता है । अमरता विमर्श की मुख्यधारा से उसका कम ही लेना देना होता है। इसलिये उनको याद करना काफ़ी ताक़त देता है ।

देवी प्रसाद मिश्र 14.2.2009

3 comments:

  1. क्या ऐसा भी होता है कि अवां गार्द के दूल्हा बनने के बाद भी वो फिर अवां गार्दिज़्म की ओर वापसी करता है या वापसी को व्याकुल होता है। वापस आ जाता है, कभी फंस भी जाता है।

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  2. लाल्टू ने ई-मेल से यह सन्देश भेजा है; वह इसे यहाँ कमेन्ट के बतौर भी रखना चाहते हैं.

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    प्रिय असद भाई,
    यह बहुत अच्छा किया आपने कि जलसा के जरिए गंभीर विमर्श का माध्यम शुरू किया.
    यह और भी अच्छा कि आपका और देवी का संवाद इसमें डाल दिया. देवी की कविता 'मामूली कविता' में अपनी वही बातें उसने बड़े खूबसूरत ढंग से (थोड़े आक्रोश के साथ) कही हैं. मैं आई टी के विद्यार्थियों को एक रीडिंग्स फ्राम हिन्दी लिटरेचर कोर्स पढाता हूं. उनको इस संवाद पर टिप्पणी लिखने का असाइन्मेंट दिया है. देखते हैं कि क्या निकलता है.
    वैसे मैं स्वयं आवां गार्द को एक बुनियादी मानवीय प्रवृत्ति की तरह देखता हूं. और यह मुझे कुह्नियन सेंस में इंकलाबी विज्ञान-कर्म की ओर जाने के प्रयास की तरह लगता है. यानी कि विरोध की ऐसी प्रवृत्ति जो नैसर्गिक है और रूटीन विचारों से अलग, उनके खिलाफ बेचैनी से नए रास्ते बनाती है; और तर्कशील संरचना या positivist episteme से भी ज्यादा मुझे यह विज्ञान-कर्म या वैज्ञानिक सोच की बुनियादी शर्त लगती है.
    इसलिए तमाम उत्तर आधुनिक विमर्शों को पढने के बावजूद मैं वैज्ञानिक सोच में संरचनात्मक खामी नहीं ढूँढ पाता. मेरे लिए वैज्ञानिक सोच के इस खूबसूरत पहलू और कविता कर्म में कोई फर्क नहीं है. यानी कविता-कर्म - चाहे सौंदर्य के स्तर पर या चाहे सामाजिक विसंगताओं के स्तर पर - हर स्तर पर मुझे एक इंकलाबी हस्तक्षेप ही दिखता है.
    जिन्हें विज्ञान की सतही समझ होती है, उन्हें विज्ञान के इस पहलू का अहसास नहीं होता. इसलिए विज्ञान पर reductionism का आक्षेप लगाते हुए वे स्वयं इस बुनियादी प्रवृत्ति को नज़रअंदाज करते हुए reductionism का शिकार होते हैं.
    जहां तक आवां गार्द के आशय, यानी उसके मानव पक्षधर या मानव विरोधी पक्ष का सवाल है, अंत तक रहता वही है जो मानव के पक्ष में हो, और यह मूलतः अराजक ही होता है, जो मानव विरोधी है (सीधे सीधे या अप्रत्यक्ष रूप से जैसे पर्यावरण के विनाश के जरिए) वह देर सबेर पकड़ में आता है. यह संभव है कि देर हो जाए, पर ऐसा नहीं हो सकता कि वह निरंतर वर्चस्व स्थापित करता चले.

    लाल्टू

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  3. sirf avat-garde ke liye avant garde koi achhi baat nahin hogi.Europe ki kala mein Dadavaadiyon ne apne ghoshanapatra mein kaha tha ko ve Cubiston ke violin ko tod denge--Cubist daur mein canvas par violin bahut bante the--aur ek had tak unhonein aisa kiya bhi.yah ek 'subversion'tha jise Devi avant-garde ka antarnihit kaam manate hain. Lekin kya 'abberation' bhi ek avan-garde nahin hai jiska udaharan akavta thi jo ki ek mohbhang ke baad ke shoonya se paida hui thi aur kuchh samay jhanda lahrane ke baad khatm ho gayee. uske kavii yaa to rajakaml chaudhary ki tarah deh ke raaste se muki ki dharana se bahar nikalne ki liye tarapte rahe ya kharab kavi ho kar rah gaye. akavita ko 'subversion' nahin kaha ja sakta.Muktibodh aur akavitavaadiyon mein koi samanta nahinhai. akavita to aadhunik kavita ka Reetikaal hai.

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