Tuesday, October 5, 2010
कुछ बातें / सिर्फ़ संगीत
अंत में सारी रचनात्मक विधाएँ संगीत की तरफ़ रुख़ करती हैं. अपनी ज़िंदगी की किसी न किसी मंज़िल पर उन्हें उस अहाते और उस मकान का तवाफ़ करने की तीव्र इच्छा होती है जहाँ का स्थायी मकीन सिर्फ़ संगीत है. सभी तरह के रचनाकार अपनी अपनी तरह से उस कैफ़ियत को हासिल करने के लिए लालायित होते हैं. इसके बिना उनका कलाकर्म अधूरा रहता है. रचनात्मक साहित्य का मामला ही लें : क्या छंद, तरन्नुम और तग़ज्जुल से या प्रभाववादी वाक्य लिखकर यह कैफ़ियत पाई जा सकती है? ऐसी कोशिश हमें उस मूल बिंदु से और दूर ले जाती है जहाँ संगीत दूसरी कलाओं से रू ब रू होता है. कोई वजह है कि ज्ञानरंजन अपनी विद्रोही और बेपरवाह सामाजिकता के साथ इस मक़ाम पर धड़धड़ाते हुए पहुँच जाते हैं और निर्मल वर्मा अपनी एकान्तिक सुर साधना और निजता के साथ कोशिश करते रह जाते हैं. असद 7.8.10
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तवाफ़? मकीन? तगज्जुल?
ReplyDeleteमोटे तौर पर :
ReplyDeleteतवाफ़ = परिक्रमा;
मकीं/मकीन = निवासी, मकान में रहने वाला;
तग़ज्ज़ुल = प्रगीतत्व या प्रगीतात्मकता (यह शब्द ग़ज़ल से बना है).
ये तो हुई शब्दार्थ और अनुवाद की बात. लेकिन यह संतोषजनक हल नहीं है.
असल बात यह है कि लिखते वक़्त मेरे दिमाग़ में तवाफ़, मकीं और तग़ज्ज़ुल ही थे. मेरे ख़याल से हिन्दी और उर्दू ऐसी ज़बानें हैं जिन्हें मिलाकर लिखे बिना हम अपने विचार और कल्पना को पूरी गहराई और आज़ादी के साथ व्यक्त नहीं कर कर सकते, बल्कि अभिव्यक्ति की गहराई को पा भी नहीं सकते, समझ भी नहीं सकते और मुझे तो लगता कि गहराई से सोच भी नहीं सकते.
ब्लाग शुरू करने के लिए बधाई।
ReplyDeleteकहीं भी एकाग्र होने पर लय बनेगी। लय मंजिल नही किसी भी जाने गए के उस पार जाने का टूल है।
कोई लिखता होगा तो उसका संगीत से क्या ताल्लुक, कोई पेन्टिंग बनाता होगा तो उसका संगीत से क्या ताल्लुक, पर लगा...हां अंत में संगीत पर ही विराम आता है।
ReplyDeleteलय का खिंचाव तो सही है - लेकिन अंत में क्यों? – रोना तो पहली सांस से होता है - फिर लोरी, खटर पटर खिलौने, स्कूली गान, फ़िल्मी गीत, आने जाने में इंजन गाड़ी की धुक -धुक, रेडियो वगैरह वगैरह - रोज़मर्रा तो उम्र भर पैठता जाता है जाने नजाने - दिल रोज़ धडकता है – अब फ्रॉयड साहब की माने तो ९० प्रतिशत का व्यक्तित्व अगर सतह से नीचे का है अप्रत्यक्ष, तो लय का निकलना, अवचेतन का कमाल हो सकता है. रचनात्मक कैफियत का मसला बहुत निजी है, ऐसा हो सकता है कि संगीत या किसी भी तरह की लय से बाहर निकालना बगावत का सबब हो या हो सकता है कि दरअसल उसकी लय अन्तःसलिला जैसी हो. ज़रूरी नहीं है कि संगीत शब्दों में बजे – मन में भी बज/ सज सकता है बगैर सुर और ताल के – ये पढ़ने वाले मन की मर्ज़ी है. [मेरे पढने में तो कविता कहानी वगैरह से मन तस्वीर बनाता है तो वैसे समझ आता है]
ReplyDeleteआप यहाँ हैं तो एक छोटी सी बात पूछनी है – मसला ये है कि “यह ऐसा समय है” कि जो कॉपी (१९९४) मेरे पास है उसमें अप्रकाशित कविता में “..शिथिल, शीशे-सी भारी काया..” लिखा है. ये सही में “शीशे” है या “सीसे” है, यही प्रश्न है [क्या है कि उससे कविता की अलग तस्वीर बनती है, मतलब में फरक नहीं होता हालंकि]
सादर - मनीष
मनीष जी,
ReplyDeleteमैं ने चाहा तो "सीसे सी भारी काया" था, पर लगता है छापे की गलती ने उसे "शीशे सी भारी" कर दिया.
असद जी
ReplyDeleteमुझे भी बिलकुल ऐसा लगा था - बहुत बहुत शुक्रिया
सादर - मनीष
असद साहब, यह जो आपने कहा
ReplyDelete''असल बात यह है कि लिखते वक़्त मेरे दिमाग़ में तवाफ़, मकीं और तग़ज्ज़ुल ही थे. मेरे ख़याल से हिन्दी और उर्दू ऐसी ज़बानें हैं जिन्हें मिलाकर लिखे बिना हम अपने विचार और कल्पना को पूरी गहराई और आज़ादी के साथ व्यक्त नहीं कर कर सकते, बल्कि अभिव्यक्ति की गहराई को पा भी नहीं सकते, समझ भी नहीं सकते और मुझे तो लगता कि गहराई से सोच भी नहीं सकते.''
तो लगा आवाज़ मेरे दिल/दिमाग से निकली. जी हजूर दिला और दिमाग अलग अलग शै नहीं, एक ही हैं, बल्कि दिमाग ही है जो दिल को चलाता है. पर अपना अनुभव तो यह रहा कि उर्दू-हिंदी को मिला कर जब जुबां दिमाग/दिल में आयी और कागज़ पर उतर गयीं तो नक्कादों ने बड़ा दिल जलाया अपना. जब जला तो लगा कि नहीं दिल और दिमाग अलग ही होंगे कि जब दिमाग कहता है कि जाने भी दो यारों तब भी दिला जले चले जाता है. यह हादसा मेरे साथ हाल में अपने उपन्यास मिलजुल मन लिखने की गुस्ताखी करने के बाद हुआ. पर हम भी कम अवा गार्द नहीं ...ज़रा जो पछतावा हुआ हो तो खुदा की मार हम पर.
मृदुला गर्ग