Friday, November 30, 2012

क़साब : दो कविताएँ

अंशु मालवीय
"आओ क़साब को फाँसी दें !"


उसे चौराहे पर फाँसी दें !
बल्कि उसे उस चौराहे पर फाँसी दें
जिस पर फ़्लडलाइट लगाकर
विधर्मी औरतों से बलात्कार किया गया
गाजे-बाजे के साथ
कैमरे और करतबों के साथ
लोकतंत्र की जय बोलते हुए

उसे उस पेड़ की डाल पर फाँसी दें
जिस पर कुछ देर पहले खुदकुशी कर रहा था किसान
उसे पोखरन में फाँसी दें
और मरने से पहले उसके मुँह पर
एक मुट्ठी रेडियोएक्टिव धूल मल दें

उसे जादूगोड़ा में फाँसी दें
उसे अबूझमाड़ में फाँसी दें
उसे बाटला हाउस में फाँसी दें
उसे फाँसी दें...कश्मीर में
गुमशुदा नौजवानों की बेनिशान क़ब्रों पर

उसे एफ़.सी.आई. के गोदाम में फाँसी दें
उसे कोयले की खदान में फाँसी दें.
आओ क़साब को फाँसी दें !!

उसे खैरलांजी में फाँसी दें
उसे मानेसर में फाँसी दें
उसे बाबरी मस्जिद के खंडहरों पर फाँसी दें
जिससे मज़बूत हो हमारी धर्मनिरपेक्षता
कानून का राज कायम हो

उसे सरहद पर फाँसी दें
ताकि तर्पण मिल सके बँटवारे के भटकते प्रेत को

उसे खदेड़ते जाएँ माँ की कोख तक... और पूछें
ज़मीनों को चबाते, नस्लों को लीलते
अज़ीयत देने की कोठरी जैसे इन मुल्कों में
क्यों भटकता था बेटा तेरा
किस घाव का लहू चाटने ....
जाने किस ज़माने से बहते हैं
बेकारी, बीमारी और बदनसीबी के घाव.....

सरहद की औलादों को ऐसे ही मरना होगा
चलो उसे रॉ और आई.एस.आई. के दफ़्तरों पर फाँसी दें
आओ क़साब को फाँसी दें !!

यहाँ न्याय एक सामूहिक हिस्टीरिया है
आओ क़साब की फाँसी को राष्ट्रीय उत्सव बना दें

निकालें प्रभातफेरियाँ
शस्त्र-पूजा करें
युद्धोन्माद,
राष्ट्रोन्माद,
हर्षोन्माद
गर मिल जाए कोई पेप्सी-कोक जैसा प्रायोजक
तो राष्ट्रगान की प्रतियोगिताएँ आयोजित करें
कंगलों को बाँटें भारतमाता की मूर्तियाँ
तैयारी करो कम्बख़्तो ! फाँसी की तैयारी करो !

इस एक फाँसी से
कितने मसले होने हैं हल
निवेशकों में भरोसा जगना है
सेंसेक्स को उछलना है
ग्रोथ रेट को पहुँच जाना है दो अंकों में

कितने काम बाक़ी हैं अभी
पंचवर्षीय योजना बनानी है
पढ़नी है विश्व बैंक की रपटें
करना है अमरीका के साथ संयुक्त युद्धाभ्यास
हथियारों का बजट बढ़ाना है...
आओ क़साब को फाँसी दें !

उसे गाँधी की समाधि पर फाँसी दें
इस एक काम से मिट जायेंगे हमारे कितने गुनाह

हे राम ! हे राम ! हे राम !..."


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सौम्य मालवीय
क़साब
 

एक अरसा हो गया था क़साब

सुनते हुए तुम्हारा नाम

इस बीच ये भी पढ़ा अख़बारों में कि कब तुमने जम्हाई ली!

किसी सत्र में तुम मुस्कुराये भी शायद!

कुछ जिरह की अपनी तरफ़ से

अपने वकील से कहा कुछ

और भी बहुत कुछ सुना, पढ़ा, देखा तुम्हारे बारे में कई बार

इतना कि कुछ अपनापन सा हो गया था तुमसे!

जैसे हमारे असंदिग्ध नरक में तुम देर तक और दूर तक चलने वाला

कोई इंतज़ाम हो गए थे

समाचार चैनल आये दिन

तुम पर 'ओपिनियन पोल' चलाते थे

और ख़ुश थीं मोबाइल कम्पनियाँ की राष्ट्रहित में बटन दबाने को

कई तत्पर और तत्सम भारतीय

सदैव तैयार होते थे

पुटुर-पुटुर, पट-पट

दाहिने-बाएँ, दाहिने-बाएँ

पुटुर-पुटुर, पट-पट

फिर एक दिन अचानक

एक निष्कपट से लग रहे बुधवार को

दुनिया के सबसे बड़े लोकतंत्र ने

तुम्हें फाँसी पर लटका दिया

गहरी गोपनीयता में मगर,

चुपचाप, गुपचुप-गुपचुप

दम साधे रहस्य का तम साधे हुए

यरवदा जेल के गाँधी अनुप्राणित वातावरण में

तुम्हारी झूलती हुई देह वह अक्ष बनी

जिस पर थिर हुआ राजनीतिक संतुलन

और कुछ संतरियों, अधिकारियों और

एक सरकारी डॉक्टर के बीच

जनतंत्र शिरोमणि हुआ!

पर जो भी हुआ इस ख़ामोश-लबी के साथ क्यूँ हुआ

तुम कोई भगत सिंह तो थे नहीं !

कि जेल के दरो-दीवार तक इस फ़ैसले से

बग़ावत कर उठते

फिर ये एहतियात ये चुप्पा-घात क्यूँ?

शायद इसलिए कि प्रतिशोध

चाहे वह दुनिया के

सबसे बड़े लोकतंत्र ने ही क्यूँ न लिया हो

कहीं न कहीं लज्जास्पद भी होता है

क्या तुमसे इंतक़ाम लेकर

कुछ घंटों के लिए ही सही

आर्यावर्त शर्मसार हो गया था क़साब !

हत्या के बाद का चेतनालोप

वह जो कुछ देर के लिए हत्यारे को शून्य कर देता है ...

पता नहीं क्यूँ

पर लोकतंत्र की इस तरतीब से मुझे

भगत सिंह का ध्यान हो आया है

भगत सिंह, क़साब तुम जानते नहीं होगे शायद

वह बीसवीं सदी के बसंत का

एक क्रांतिचेता बीज था

तुम्हें तो यह कौल भी नहीं होगा

कि तुमने जो क्या वो क्यूँ किया

पर उसे क़साब, भगत सिंह को

वह जो गुजराँवाला पाकिस्तान में जन्मा था

उसे सब पता था

जैसे इतिहास की कच्छप गति

कब ख़रगोश की तरह हो जाती है

और किस तरह वह एक गहरे गढ्ढे में गिर जाता है

इसलिए क़साब भगत सिंह

एक कठिन चुनौती था

उसे मारा ब्रिटिश हुकूमत ने यूँ ही मुँह चुराकर

जैसे नवम्बर की एक सुबह

कुहासे का भेद छटने से पहले ही तुम्हें

फाँसी पर लटका दिया

पर तुम क़साब

कोई फ़लसफ़ाई इंक़लाबी तो थे नहीं

कार्गो पहने और कलाशनिकोव से अँधाधुंध गोलियाँ बरसाते

तुम किसी विडियो-गेम के मूर्तिमना पात्र जैसे मालूम हुए थे

और फिर ये मीडिया वाले तो तुम्हें

आतंकी का भी ओहदा नहीं देते क़साब

वे तो तुम्हे बंदूक़धारी या 'गनमैन' बुलाते हैं

तुम तो शायद बिना जाने ही मर गए

कि तुमने क्या किया

और ख़ुदा जाने जन्नत का एक पाक परिंदा बनने का

तुम्हारा सपना पूरा हुआ भी या नहीं

पर हम बहुत अच्छे से जानते हैं कि तुमसे हमें क्या मिला

तुमने हमें अमेरिकी 9/11 की तर्ज पर

अपना, ख़ालिस अपना 26/11 देकर

घटनाओं की दुनिया में स्वराज दिया क़साब

शायद इसीलिए तुम्हे गाँधी के जेल यरवदा ले गए थे ...

तुम शायद "एक्स " थे क़साब

जिसे गणित में सवाल हल करने के लिए फ़र्ज कर लेते हैं

तुमसे भी तो हल किये गए कई सवाल

जैसे कि चुस्त ही हुआ राष्ट्र का समीकरण,

धर्म के प्रमेय सिद्ध हुए,

सत्ता की खंडित ज्यामिति ने अपनी सममिति पा ली

इसीलिए शायद तुम्हें ठिकाने लगाने की योजना को

नाम दिया गया "ऑपरेशन एक्स" ...

क़साब फ़रीदकोट की धरती एक्स ही जनती है

और तुम जानते नहीं कि तीसरी दुनिया में कितने फ़रीदकोट हैं

धरती के चेहरे पर चकत्तों की तरह उभरे हुए

क़साब तुम्हारी मौत

कोई अंत नहीं, एक्स जैसे चरों की चरैवेति है ...

तुम तो मर गए क़साब

पर हमारे लिए कई सवाल पैदा कर गए हो

जैसे अगर विश्व के सबसे शक्तिशाली लोकतंत्र का राष्ट्रपति

13 साल की उम्र में घरबदर हो गया होता

तो उसका क्या होता?

क्या तब भी उसे नोबेल का शांति पुरस्कार मिलता?

जिसे सर पर पहन कर वह यूँ ही ग़ज़ा पर हमले की ताईद करता?

जैसे वह पाकिस्तान में दरगाहें क्यूँ गिरा रहे हैं क़साब?

वैसे ही दरगाहें जिनमे घर से बेज़ार होने के बाद

तुमने कुछ रातें गुज़ारी थीं

जैसे चारमीनार से सट कर मंदिर बन गया है कैसे?

जैसे ये

जैसे वो

जैसे ये चिरायंध कैसी है क़साब

ये धुआँ कैसा है ...

Monday, January 16, 2012

ग़ाज़ियाबाद के बिल्डरों तो आप जानते ही हैं

पत्रिका

ग़ाज़ियाबाद के बिल्डरों तो आप जानते ही हैं
उनमें से एक ने राजनीतिक सांस्कृतिक पत्रिका निकाली

जिसमें विचारधाराओँ वाले लोग
कविताएँ वग़ैरह समीक्षाएँ वग़ैरह विचार वग़ैरह लिखने लगे

पत्रिका निरंतर घाटे में निकल रही थी
लेकिन मालिक को घाटा नहीं हो रहा था वह
नौकरशाहों और मंत्रियों के पास जाया करता था
और पत्रिका के अंक दिखाया करता था

मतलब कि वह बिना यह कहे ताक़तवरों को
डराया करता था कि ये बड़े बड़े विचारक आप पर
बहुत विश्लेषणात्मक तरीक़े से लिख सकते हैं
मतलब कि आप के धंधों पर और आपके घपलों पर
मतलब कि आप भी हमें देश को उजाड़ने दें कि जैसे
हम आपको हर तरह के पतन का मौक़ा दे रहे हैं
नहीं तो जैसा कि मैंने बिना कहे कहा कि
ये बड़े बड़े लोग आप पर बहुत
विश्लेषणात्मक तरीक़े से लिख सकते हैं
और जो अपना विश्लेषण कम करते हैं
और जो आप ही देखिये हम जैसे अपराधियों के पैसे से
कितनी अच्छी और मानवीय पत्रिका निकालते रहते हैं

− देवी प्रसाद मिश्र

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जलसा २०१० ('अधूरी बातें') में प्रकाशित

Friday, January 13, 2012

आधुनिकतावाद

रोमेंटिक संवेग भोले-भालेपन की मांग करता है और बताता है कि बहुत सी चीज़ों की 'पवित्रता' अभी बची हुई है। यह पवित्रता दरअसल चीज़ों के होने में, उनकी सचाई में यक़ीन का ही दूसरा रूप है कि उनका जादू अभी बाक़ी है। उन्हें आदर और आकर्षण के साथ, इच्छा और दूरी के साथ देखा जाता है। ऐसी एक दुनिया आपके इर्द-गिर्द बन जाती है जो आपको लुभाती है और ऊँचा उठाती है। लेकिन आधुनिकतावाद इस रोमेंटिक संवेग के सुकुमार तंतु को जला देता है। दुनिया और चीज़ें अचानक अपना जादू खो देती हैं, हर चीज़ दाग़ी हो जाती है, हर चीज़ आहार में बदल जाती है, हर चीज़ संदेह में घिर जाती है, वर्तमान और भविष्य और अतीत एक दूसरे में संचरण करते हुए नहीं आते। यह लय, यह सिंफ़नी छिन्न-भिन्न हो जाती है, तार बीच में से टूट जाता है। आप पतंग की तरह आकाश में हल्के हो अनायास उठते चले जाएं, इसके बजाए पतंग कट-फट कर किसी कँटीली झाड़ी में उलझ जाती है। आधुनिकतावाद उड़ते पक्षी को मारकर क़दमों में गिरा देता है। इस तरह का टेढ़ापन और सिनिसिज़्म आधुनिकतावाद के लिए ज़रूरी है।

लेकिन आधुनिकतावाद रोमानियत का ही पिछवाड़ा तो है। उसी की असलियत का साक्षात्कार! रोमेंटिसिज़्म ने जिस चीज़ को बना कर दिखाया है, आधुनिकतावादियों ने उसे खोल कर दिखा दिया (या कहें कि रोमेंटिसिज़्म ने रंगाई पुताई की, आधुनिकतावाद ने ब्लीचिंग कर दी)। आधुनिकतावादियों में प्रच्छन्न रोमेंटिक भरे पड़े हैं या कहें कि हर आधुनिकतावादी में एक शर्मिन्दा रोमेंटिक बैठा है तो ग़लत न होगा। जिस तरह हर सिनिक में एक ठगा हुआ और नाराज़ भोला-भाला आदमी बैठा हुआ है।

मनमोहन

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जलसा २०१० ('अधूरी बातें') में प्रकाशित

Wednesday, January 11, 2012

सहस्तर का फूल

सहस्रताल टिहरी-गढ़वाल की भीलांगना घाटी के विकराल पर्वतों पर स्थित एक भीषण ताल है जो कि बहुत दुर्गम है। स्थानीय ग्रामीण जन सहस्रताल को "सहस्तर" पुकारते हैं और कहते हंैं - ‘जर्मन की लड़ाई’, सहस्तर की चढ़ाई। सहस्रताल की यात्रा से लौटने पर एक दिन मैंने यह कामना की :


काश मैं सहस्तर का फूल होती। कोई हृदयहीन हाथ मुझे तोड़ता तो मेरी डाल के असंख्य महीन कांटे उसमें विषैले डंक मारते। कोई मूर्खतापूर्ण शब्दों में मेरी प्रशंसा करता तो सहस्तर की लहरों का गर्जन उसके भोंडे स्वर को कुचल डालता। कोई मुझे सूँघने की जुर्रत करता तो मेरी चीर देने वाली तेज़ कटार सी खुशबू उसे बेहोश कर डालती। मेरा पवित्र एकान्त भंग करने वहाँ बेहया भीड़ न होती। कोई इक्का-दुक्का दर्शक वहाँ आता भी तो भीषण डांगरों को पार कर प्रचन्ड वन से गुज़रता एक एक चट्टान पर पैर जमाता, भूख प्यास सहता, अथक श्रम और साहस से हाँफ़ता यहाँ तक पहुँचता और उन ऊँचाइयों पर मुझे खिला पाकर किसी अज्ञात भाव में डूब कर मुझे देखता।

काश में सहस्तर का फूल होती। मेरी नश्वरता अभिशप्त न होती। मैं बड़ी उछाह से एक दिन सूरज और एक रात चाँद की किरनें पी कर चुपचाप अपार गरिमा के साथ झर जाती और झर कर अपनी ही जड़ों पर गिर पड़ती। सिवाय खिलने के मेरी कोई उपयोगिता न होती। अपने अस्त्तिव का औचित्य मैं स्वयं होती और स्वयं ही अपने अस्त्तिव का प्रमाण होती।

काश मैं सहस्तर का फूल होती। मैं केवल पृथ्वी पर अन्तहीन आकाश के नीचे जीवन का क्षणिक और चमत्कारिक उन्मेष होती।

मैं बिकती नहीं सजती नहीं, आर-पार चिर कर किसी माला का अंग न होती, मैं किसी फूलदान में क़ैद न होती, अर्थियों पर न होती, मैं प्रदर्शनी में न होती, मैं बग़ीचे में न होती, मैं किसी जूड़े का गहना न होती, मैं किसी के प्रेम का प्रतीक न होती, मैं किसी कलाकार की विषयवस्तु न होती, मैं किसी वैज्ञानिक की सामग्री न होती, मैं किसी मन्दिर में न होती। मैं सहस्तर के भयावह दुरूह तट पर खड़ी ऐन अपनी जड़ों पर होती।

काश मैं सहस्तर का फूल होती।

ज्योत्स्ना शर्मा


जलसा 2010 (अधूरी बातें) में संकलित