Monday, January 16, 2012

ग़ाज़ियाबाद के बिल्डरों तो आप जानते ही हैं

पत्रिका

ग़ाज़ियाबाद के बिल्डरों तो आप जानते ही हैं
उनमें से एक ने राजनीतिक सांस्कृतिक पत्रिका निकाली

जिसमें विचारधाराओँ वाले लोग
कविताएँ वग़ैरह समीक्षाएँ वग़ैरह विचार वग़ैरह लिखने लगे

पत्रिका निरंतर घाटे में निकल रही थी
लेकिन मालिक को घाटा नहीं हो रहा था वह
नौकरशाहों और मंत्रियों के पास जाया करता था
और पत्रिका के अंक दिखाया करता था

मतलब कि वह बिना यह कहे ताक़तवरों को
डराया करता था कि ये बड़े बड़े विचारक आप पर
बहुत विश्लेषणात्मक तरीक़े से लिख सकते हैं
मतलब कि आप के धंधों पर और आपके घपलों पर
मतलब कि आप भी हमें देश को उजाड़ने दें कि जैसे
हम आपको हर तरह के पतन का मौक़ा दे रहे हैं
नहीं तो जैसा कि मैंने बिना कहे कहा कि
ये बड़े बड़े लोग आप पर बहुत
विश्लेषणात्मक तरीक़े से लिख सकते हैं
और जो अपना विश्लेषण कम करते हैं
और जो आप ही देखिये हम जैसे अपराधियों के पैसे से
कितनी अच्छी और मानवीय पत्रिका निकालते रहते हैं

− देवी प्रसाद मिश्र

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जलसा २०१० ('अधूरी बातें') में प्रकाशित

Friday, January 13, 2012

आधुनिकतावाद

रोमेंटिक संवेग भोले-भालेपन की मांग करता है और बताता है कि बहुत सी चीज़ों की 'पवित्रता' अभी बची हुई है। यह पवित्रता दरअसल चीज़ों के होने में, उनकी सचाई में यक़ीन का ही दूसरा रूप है कि उनका जादू अभी बाक़ी है। उन्हें आदर और आकर्षण के साथ, इच्छा और दूरी के साथ देखा जाता है। ऐसी एक दुनिया आपके इर्द-गिर्द बन जाती है जो आपको लुभाती है और ऊँचा उठाती है। लेकिन आधुनिकतावाद इस रोमेंटिक संवेग के सुकुमार तंतु को जला देता है। दुनिया और चीज़ें अचानक अपना जादू खो देती हैं, हर चीज़ दाग़ी हो जाती है, हर चीज़ आहार में बदल जाती है, हर चीज़ संदेह में घिर जाती है, वर्तमान और भविष्य और अतीत एक दूसरे में संचरण करते हुए नहीं आते। यह लय, यह सिंफ़नी छिन्न-भिन्न हो जाती है, तार बीच में से टूट जाता है। आप पतंग की तरह आकाश में हल्के हो अनायास उठते चले जाएं, इसके बजाए पतंग कट-फट कर किसी कँटीली झाड़ी में उलझ जाती है। आधुनिकतावाद उड़ते पक्षी को मारकर क़दमों में गिरा देता है। इस तरह का टेढ़ापन और सिनिसिज़्म आधुनिकतावाद के लिए ज़रूरी है।

लेकिन आधुनिकतावाद रोमानियत का ही पिछवाड़ा तो है। उसी की असलियत का साक्षात्कार! रोमेंटिसिज़्म ने जिस चीज़ को बना कर दिखाया है, आधुनिकतावादियों ने उसे खोल कर दिखा दिया (या कहें कि रोमेंटिसिज़्म ने रंगाई पुताई की, आधुनिकतावाद ने ब्लीचिंग कर दी)। आधुनिकतावादियों में प्रच्छन्न रोमेंटिक भरे पड़े हैं या कहें कि हर आधुनिकतावादी में एक शर्मिन्दा रोमेंटिक बैठा है तो ग़लत न होगा। जिस तरह हर सिनिक में एक ठगा हुआ और नाराज़ भोला-भाला आदमी बैठा हुआ है।

मनमोहन

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जलसा २०१० ('अधूरी बातें') में प्रकाशित

Wednesday, January 11, 2012

सहस्तर का फूल

सहस्रताल टिहरी-गढ़वाल की भीलांगना घाटी के विकराल पर्वतों पर स्थित एक भीषण ताल है जो कि बहुत दुर्गम है। स्थानीय ग्रामीण जन सहस्रताल को "सहस्तर" पुकारते हैं और कहते हंैं - ‘जर्मन की लड़ाई’, सहस्तर की चढ़ाई। सहस्रताल की यात्रा से लौटने पर एक दिन मैंने यह कामना की :


काश मैं सहस्तर का फूल होती। कोई हृदयहीन हाथ मुझे तोड़ता तो मेरी डाल के असंख्य महीन कांटे उसमें विषैले डंक मारते। कोई मूर्खतापूर्ण शब्दों में मेरी प्रशंसा करता तो सहस्तर की लहरों का गर्जन उसके भोंडे स्वर को कुचल डालता। कोई मुझे सूँघने की जुर्रत करता तो मेरी चीर देने वाली तेज़ कटार सी खुशबू उसे बेहोश कर डालती। मेरा पवित्र एकान्त भंग करने वहाँ बेहया भीड़ न होती। कोई इक्का-दुक्का दर्शक वहाँ आता भी तो भीषण डांगरों को पार कर प्रचन्ड वन से गुज़रता एक एक चट्टान पर पैर जमाता, भूख प्यास सहता, अथक श्रम और साहस से हाँफ़ता यहाँ तक पहुँचता और उन ऊँचाइयों पर मुझे खिला पाकर किसी अज्ञात भाव में डूब कर मुझे देखता।

काश में सहस्तर का फूल होती। मेरी नश्वरता अभिशप्त न होती। मैं बड़ी उछाह से एक दिन सूरज और एक रात चाँद की किरनें पी कर चुपचाप अपार गरिमा के साथ झर जाती और झर कर अपनी ही जड़ों पर गिर पड़ती। सिवाय खिलने के मेरी कोई उपयोगिता न होती। अपने अस्त्तिव का औचित्य मैं स्वयं होती और स्वयं ही अपने अस्त्तिव का प्रमाण होती।

काश मैं सहस्तर का फूल होती। मैं केवल पृथ्वी पर अन्तहीन आकाश के नीचे जीवन का क्षणिक और चमत्कारिक उन्मेष होती।

मैं बिकती नहीं सजती नहीं, आर-पार चिर कर किसी माला का अंग न होती, मैं किसी फूलदान में क़ैद न होती, अर्थियों पर न होती, मैं प्रदर्शनी में न होती, मैं बग़ीचे में न होती, मैं किसी जूड़े का गहना न होती, मैं किसी के प्रेम का प्रतीक न होती, मैं किसी कलाकार की विषयवस्तु न होती, मैं किसी वैज्ञानिक की सामग्री न होती, मैं किसी मन्दिर में न होती। मैं सहस्तर के भयावह दुरूह तट पर खड़ी ऐन अपनी जड़ों पर होती।

काश मैं सहस्तर का फूल होती।

ज्योत्स्ना शर्मा


जलसा 2010 (अधूरी बातें) में संकलित