अंशु मालवीय
"आओ क़साब को फाँसी दें !"
उसे चौराहे पर फाँसी दें !
बल्कि उसे उस चौराहे पर फाँसी दें
जिस पर फ़्लडलाइट लगाकर
विधर्मी औरतों से बलात्कार किया गया
गाजे-बाजे के साथ
कैमरे और करतबों के साथ
लोकतंत्र की जय बोलते हुए
उसे उस पेड़ की डाल पर फाँसी दें
जिस पर कुछ देर पहले खुदकुशी कर रहा था किसान
उसे पोखरन में फाँसी दें
और मरने से पहले उसके मुँह पर
एक मुट्ठी रेडियोएक्टिव धूल मल दें
उसे जादूगोड़ा में फाँसी दें
उसे अबूझमाड़ में फाँसी दें
उसे बाटला हाउस में फाँसी दें
उसे फाँसी दें...कश्मीर में
गुमशुदा नौजवानों की बेनिशान क़ब्रों पर
उसे एफ़.सी.आई. के गोदाम में फाँसी दें
उसे कोयले की खदान में फाँसी दें.
आओ क़साब को फाँसी दें !!
उसे खैरलांजी में फाँसी दें
उसे मानेसर में फाँसी दें
उसे बाबरी मस्जिद के खंडहरों पर फाँसी दें
जिससे मज़बूत हो हमारी धर्मनिरपेक्षता
कानून का राज कायम हो
उसे सरहद पर फाँसी दें
ताकि तर्पण मिल सके बँटवारे के भटकते प्रेत को
उसे खदेड़ते जाएँ माँ की कोख तक... और पूछें
ज़मीनों को चबाते, नस्लों को लीलते
अज़ीयत देने की कोठरी जैसे इन मुल्कों में
क्यों भटकता था बेटा तेरा
किस घाव का लहू चाटने ....
जाने किस ज़माने से बहते हैं
बेकारी, बीमारी और बदनसीबी के घाव.....
सरहद की औलादों को ऐसे ही मरना होगा
चलो उसे रॉ और आई.एस.आई. के दफ़्तरों पर फाँसी दें
आओ क़साब को फाँसी दें !!
यहाँ न्याय एक सामूहिक हिस्टीरिया है
आओ क़साब की फाँसी को राष्ट्रीय उत्सव बना दें
निकालें प्रभातफेरियाँ
शस्त्र-पूजा करें
युद्धोन्माद,
राष्ट्रोन्माद,
हर्षोन्माद
गर मिल जाए कोई पेप्सी-कोक जैसा प्रायोजक
तो राष्ट्रगान की प्रतियोगिताएँ आयोजित करें
कंगलों को बाँटें भारतमाता की मूर्तियाँ
तैयारी करो कम्बख़्तो ! फाँसी की तैयारी करो !
इस एक फाँसी से
कितने मसले होने हैं हल
निवेशकों में भरोसा जगना है
सेंसेक्स को उछलना है
ग्रोथ रेट को पहुँच जाना है दो अंकों में
कितने काम बाक़ी हैं अभी
पंचवर्षीय योजना बनानी है
पढ़नी है विश्व बैंक की रपटें
करना है अमरीका के साथ संयुक्त युद्धाभ्यास
हथियारों का बजट बढ़ाना है...
आओ क़साब को फाँसी दें !
उसे गाँधी की समाधि पर फाँसी दें
इस एक काम से मिट जायेंगे हमारे कितने गुनाह
हे राम ! हे राम ! हे राम !..."
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सौम्य मालवीय
क़साब
एक अरसा हो गया था क़साब
सुनते हुए तुम्हारा नाम
इस बीच ये भी पढ़ा अख़बारों में कि कब तुमने जम्हाई ली!
किसी सत्र में तुम मुस्कुराये भी शायद!
कुछ जिरह की अपनी तरफ़ से
अपने वकील से कहा कुछ
और भी बहुत कुछ सुना, पढ़ा, देखा तुम्हारे बारे में कई बार
इतना कि कुछ अपनापन सा हो गया था तुमसे!
जैसे हमारे असंदिग्ध नरक में तुम देर तक और दूर तक चलने वाला
कोई इंतज़ाम हो गए थे
समाचार चैनल आये दिन
तुम पर 'ओपिनियन पोल' चलाते थे
और ख़ुश थीं मोबाइल कम्पनियाँ की राष्ट्रहित में बटन दबाने को
कई तत्पर और तत्सम भारतीय
सदैव तैयार होते थे
पुटुर-पुटुर, पट-पट
दाहिने-बाएँ, दाहिने-बाएँ
पुटुर-पुटुर, पट-पट
फिर एक दिन अचानक
एक निष्कपट से लग रहे बुधवार को
दुनिया के सबसे बड़े लोकतंत्र ने
तुम्हें फाँसी पर लटका दिया
गहरी गोपनीयता में मगर,
चुपचाप, गुपचुप-गुपचुप
दम साधे रहस्य का तम साधे हुए
यरवदा जेल के गाँधी अनुप्राणित वातावरण में
तुम्हारी झूलती हुई देह वह अक्ष बनी
जिस पर थिर हुआ राजनीतिक संतुलन
और कुछ संतरियों, अधिकारियों और
एक सरकारी डॉक्टर के बीच
जनतंत्र शिरोमणि हुआ!
पर जो भी हुआ इस ख़ामोश-लबी के साथ क्यूँ हुआ
तुम कोई भगत सिंह तो थे नहीं !
कि जेल के दरो-दीवार तक इस फ़ैसले से
बग़ावत कर उठते
फिर ये एहतियात ये चुप्पा-घात क्यूँ?
शायद इसलिए कि प्रतिशोध
चाहे वह दुनिया के
सबसे बड़े लोकतंत्र ने ही क्यूँ न लिया हो
कहीं न कहीं लज्जास्पद भी होता है
क्या तुमसे इंतक़ाम लेकर
कुछ घंटों के लिए ही सही
आर्यावर्त शर्मसार हो गया था क़साब !
हत्या के बाद का चेतनालोप
वह जो कुछ देर के लिए हत्यारे को शून्य कर देता है ...
पता नहीं क्यूँ
पर लोकतंत्र की इस तरतीब से मुझे
भगत सिंह का ध्यान हो आया है
भगत सिंह, क़साब तुम जानते नहीं होगे शायद
वह बीसवीं सदी के बसंत का
एक क्रांतिचेता बीज था
तुम्हें तो यह कौल भी नहीं होगा
कि तुमने जो क्या वो क्यूँ किया
पर उसे क़साब, भगत सिंह को
वह जो गुजराँवाला पाकिस्तान में जन्मा था
उसे सब पता था
जैसे इतिहास की कच्छप गति
कब ख़रगोश की तरह हो जाती है
और किस तरह वह एक गहरे गढ्ढे में गिर जाता है
इसलिए क़साब भगत सिंह
एक कठिन चुनौती था
उसे मारा ब्रिटिश हुकूमत ने यूँ ही मुँह चुराकर
जैसे नवम्बर की एक सुबह
कुहासे का भेद छटने से पहले ही तुम्हें
फाँसी पर लटका दिया
पर तुम क़साब
कोई फ़लसफ़ाई इंक़लाबी तो थे नहीं
कार्गो पहने और कलाशनिकोव से अँधाधुंध गोलियाँ बरसाते
तुम किसी विडियो-गेम के मूर्तिमना पात्र जैसे मालूम हुए थे
और फिर ये मीडिया वाले तो तुम्हें
आतंकी का भी ओहदा नहीं देते क़साब
वे तो तुम्हे बंदूक़धारी या 'गनमैन' बुलाते हैं
तुम तो शायद बिना जाने ही मर गए
कि तुमने क्या किया
और ख़ुदा जाने जन्नत का एक पाक परिंदा बनने का
तुम्हारा सपना पूरा हुआ भी या नहीं
पर हम बहुत अच्छे से जानते हैं कि तुमसे हमें क्या मिला
तुमने हमें अमेरिकी 9/11 की तर्ज पर
अपना, ख़ालिस अपना 26/11 देकर
घटनाओं की दुनिया में स्वराज दिया क़साब
शायद इसीलिए तुम्हे गाँधी के जेल यरवदा ले गए थे ...
तुम शायद "एक्स " थे क़साब
जिसे गणित में सवाल हल करने के लिए फ़र्ज कर लेते हैं
तुमसे भी तो हल किये गए कई सवाल
जैसे कि चुस्त ही हुआ राष्ट्र का समीकरण,
धर्म के प्रमेय सिद्ध हुए,
सत्ता की खंडित ज्यामिति ने अपनी सममिति पा ली
इसीलिए शायद तुम्हें ठिकाने लगाने की योजना को
नाम दिया गया "ऑपरेशन एक्स" ...
क़साब फ़रीदकोट की धरती एक्स ही जनती है
और तुम जानते नहीं कि तीसरी दुनिया में कितने फ़रीदकोट हैं
धरती के चेहरे पर चकत्तों की तरह उभरे हुए
क़साब तुम्हारी मौत
कोई अंत नहीं, एक्स जैसे चरों की चरैवेति है ...
तुम तो मर गए क़साब
पर हमारे लिए कई सवाल पैदा कर गए हो
जैसे अगर विश्व के सबसे शक्तिशाली लोकतंत्र का राष्ट्रपति
13 साल की उम्र में घरबदर हो गया होता
तो उसका क्या होता?
क्या तब भी उसे नोबेल का शांति पुरस्कार मिलता?
जिसे सर पर पहन कर वह यूँ ही ग़ज़ा पर हमले की ताईद करता?
जैसे वह पाकिस्तान में दरगाहें क्यूँ गिरा रहे हैं क़साब?
वैसे ही दरगाहें जिनमे घर से बेज़ार होने के बाद
तुमने कुछ रातें गुज़ारी थीं
जैसे चारमीनार से सट कर मंदिर बन गया है कैसे?
जैसे ये
जैसे वो
जैसे ये चिरायंध कैसी है क़साब
ये धुआँ कैसा है ...