Thursday, June 9, 2011
एक निधन
जलावतनी में मौत
मक़बूल फ़िदा हुसेन के निधन से न सिर्फ़ हिन्दुस्तान ने बल्कि एशिया ने अाधुनिक इतिहास का अपना सबसे बड़ा कलाकार खो दिया है। भारतीय उपमहाद्वीप की कला को उन्होंने एक नई अस्मिता अौर नया अात्मविश्वास दिया। उनके काम में से एक नहीं अनेक रास्ते निकलते हैं। समकालीन भारतीय कला में शायद ही कोई पहलू या मुद्रा ऐसी हो जिसका अारंभ या पूर्वाभास हुसेन में न मिलता हो। हुसेन भले ही चले गए हों, हुसेन युग जल्दी ख़त्म नहीं होने वाला है।
पिछले १५ साल से वह निर्वासित कलाकार का जीवन जी रहे थे, वह अब निर्वासन सदा के लिए स्थायी हो गया है। लाख चाहने के बावुजूद वह अपने वतन वापस न अा सके, जलावतनी में उनकी मौत हुई। कोई बेहिस ही होगा जिसे यह ख़बर सुनकर बहादुरशाह ज़फ़र की याद न अाई हो। रंगून की उस मौत अौर लंदन की इस मौत के बीच हालात का जो भी फ़र्क़ हो - अौर डेढ़ सौ साल का गंभीर फ़ासला - हमारे हिन्दुस्तानी फ़ासिस्टों ने, अौर उनके तुष्टिकरण में मसरूफ़ भारतीय राज्य ने, मिटाकर रख दिया है। इस मामले में भारतीय कला-जगत के दामन पर भी कम दाग़ नहीं हैं।
हुसेन को जहाँ दफ़नाया गया है, वह जगह पता नहीं लंदन की हाईगेट सिमिट्री से कितनी दूर है जहाँ उन्नीसवीं सदी का सबसे मशहूर नागरिकता-विहीन निर्वासित शख़्स, कार्ल मार्क्स, दफ़न है। यक़ीनन दो क़ब्रों बीच बहुत दूरी न होगी। मौत के बाद अब वह निर्वासित मनुष्यता की उस सार्वभौमिक जगह में दाखिल हो गए हैं जहाँ उनका साथ देने को पाब्लो पिकासो, नाज़िम हिकमत अौर सेसर वायेख़ो पहले से मौजूद हैं।
अब अचानक हमारे फ़ासिस्ट माँग कर रहे हैं कि हुसेन को भारत लाकर दफ़नाया जाए! सुनकर अाश्चर्य होता है। शायद वे एक मौक़ा अौर चाहते हैं, ताकि हुसेन की क़ब्र या स्मारक के साथ वही सुलूक कर सकें जो उन्होंने नौ साल पहले गुजरात में वली दकनी के मज़ार के साथ किया था।
ऐसे में ग़ालिब ही याद अाते हैं : मुझको दयारे ग़ैर में मारा वतन से दूर / रख ली मिरे ख़ुदा ने मिरी बेकसी की शर्म।
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